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चिन्ताका विषय अनुवाद
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पडता है उन्हे 'सुत ' पदके वाद तच्छिष्य ' पदोका प्रयोग कुछ व्यर्थ जान पड़ा है और इसीलिये उन्होने 'लोक्यकीर्ति । नामके सज्ञापदको 'त्रिलोकमे प्रसिद्ध कीर्तिवान्' इस रूपसे अनुवादित करके उसे गुणभूपणका ही एक विशेषण बना दिया है। और 'विनयेन्दु' (विनयचन्द ) तथा 'अद्भुतमति ' पदोका अनुवाद करना वे शायद भूल गये ।। अस्तु । ___अथकर्ताने उक्त पद्यमे अपनी जिस गुरु-परम्पराका उल्लेख किया है उसका समर्थन दूसरे प्रमाणोसे भी होता है। यद्यपि, प्रकृत पद्यकी स्पष्ट स्थितिमे, उन्हे यहॉपर उद्धृत करनेकी जरूरत नही है फिर भी साधारण पाठकोके सतोपार्थ नमूनेके तौरपर कुछ परिचय नीचे दिया जाता है -
(१) पडित आशाधरजीने 'इष्टोपदेश' की टीका विनयचन्द्रमुनिके कहनेसे ( 'विनयेन्दुमुनेर्वाक्यात्' ) लिखी है और विनयचन्द्रको सागरचन्द्र ( सागरेन्दु ) का शिष्य बतलाया है - ___ 'उपशम इव मूर्त. सागरेन्दुसुनीन्द्रादजनि विनयचन्द्र सञ्चकोरैकचन्द्रः।'
इससे उक्त पद्यके द्वितीय चरणका समर्थन होता है और यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सागरचन्द्रके शिष्य ( मुत ) विनयचन्द्र (विनयेन्दु ) थे, गुणभूपण नहीं।
(२) पं० बामदेव, अपने 'भावसग्रह की प्रशस्तिमे, मूलसघके 'त्रिलोक्यकीर्ति' को विनयचन्द्र (विनयेन्दु ) का शिष्य लिखते हैं -
भूयाद्भव्यजनस्य विश्वमहित श्रीमूलसंघ श्रिय यत्राभूद्विनयेन्दुरभुतगुण. सच्छीलदुग्धार्णव । तच्छिष्योऽजनि भद्रमूर्तिरमलौलोक्यकीर्तिः शशी येनैकान्तमहातम प्रमथितं स्याद्वादविद्याकरै ।।