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युगवीर-निवन्धावली होकर मिथ्यानय है । आचार्य सिद्धसेनने सन्मतिसूत्र ( ३-४६ ) मे उसे दुनिक्षिप्त शुद्धनय ( अपरिशुद्धनय ) बतलाया है और लिखा है कि वह स्व-पर दोनो पक्षोका विघातक होता है।
(रहा पाँचवाँ 'असंयुक्त' विशेषण, वह भी जिनशासनके साथ लागू नही होता, क्योकि जो शासन अनेक प्रकारके विशेषोसे युक्त है, अभेद-भेदात्मक अर्थतत्त्वोकी विविध कुर्थनीसे संगठित है और अगो आदिके अनेक सम्बन्धोको अपने साथ जोडें हुए है- उसे सर्वथा असयुक्त कैसे कहा जा सकता है ? नही कहा जा सकता।
इस तरह शुद्धात्मा और जिनशासनको एक बतलानेसे शुद्धात्माके जो पाँच विशेषण जिनशासनको प्राप्त होते हैं वे उसके साथ संगत नही बैठते। इसके सिवा शुद्धात्मा केवलज्ञानस्वरूप है, जब कि जिनशासनके द्रव्यश्रुत और भावश्रुत ऐसे दो मुख्य भेद किये जाते हैं, जिनमे भावश्रुत श्रुतज्ञानके रूपमे है जिसका केवलज्ञानके साथ और नही तो प्रत्यक्ष परोक्षका भेद तो है ही । रहा द्रव्यश्रुत, वह शब्दात्मक हो या अक्षरात्मक, दोनो ही अवस्थाओमे जड रूप है-ज्ञानरूप नही । चुनाँचे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने भी 'सत्यं णाणं ण हवइ जम्हा सत्थं ण जाणए किचि । तम्हा अण्ण णाणं अण्णं सत्यं जिणा विति ॥' इत्यादि गाथाओमे ऐसा ही प्रतिपादन किया है और शास्त्र तथा शब्दको ज्ञानसे भिन्न बतलाया है। ऐसी हालतमे शुद्धात्माके साथ द्रव्यश्रुतका एकत्व स्थापित नही किया जा सकता और यह भी शुद्धात्मा तथा जिनशासनको एक बतलानेमे बाधक है। ___ अब मैं इतना और बतला देना चाहता हूँ कि कानजी स्वामीके प्रवचनलेखके प्रथम पैराग्राफमे जो यह लिखा है कि
'शुद्ध आत्मा वह जिनशासन है; इसलिये जो जीव अपने