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कानजी स्वामी और जिनशासन इस विपयके स्वतन्त्र अधिकारी है और इसलिये इसका निर्णय मैं उन्ही पर छोडता हूँ। यहाँ तो मुझे जिनशासन-सम्बन्धी इन उल्लेखोके द्वारा सिर्फ इतना ही बतलाना या दिखलाना इष्ट है कि सर्वथा 'अविशेष' विशेपण उसके साथ सगत नही हो सकता। और उसीके साथ क्या, किसीके भी साथ वह पूर्णरूपेण सगत नही हो सकता, क्योकि ऐसा कोई भी द्रव्य, पदार्थ या वस्तुविशेप नही है जो किसी भी अवस्था, पर्याय, भेद, विकल्प या गुणको लिये हुए न हो। इन अवस्था तथा पर्यायादिका नाम ही 'विशेष' है और इसलिये जो इन विशेपोसे सर्वथा शून्य है, वह अवस्तु है। पर्यायके विना द्रव्य और द्रव्यके विना पर्याय होते हो नही, दोनोमे परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है । इस सिद्धान्तको स्वयं कुन्दकुन्दाचार्यने भी अपने पचास्तिकायग्रन्यकी निम्न गाथामे स्वीकार किया है और उसे श्रमणोका सिद्धान्त बतलाया है
पज्जयविजुदं दव्वं दव्वविजुत्ता य पजया त्थि। दोण्हं अणण्णभूदं भावं समणा पतविति ॥१२॥'
ऐसी हालतमे शुद्धात्मा भी इस श्रमण-सिद्धान्तसे बहिर्भूत नही हो सकता, उसे जो 'अविशेप' कहा गया है वह किस दृष्टिको लिये हुए है, इसे कुछ गहराईमे उतरकर जाननेकी जरूरत है। मात्र यह कह देनेसे काम नहीं चलेगा कि शुद्धनयकी दृष्टिसे वैसा कहा गया है, क्योकि कोई भी सम्यक्नय ऐसा नही है जो नियमसे शुद्धजातीय हो-अपने ही पक्षके साथ प्रतिवद्ध हो। जैसा कि सिद्धसेनाचार्य के निम्न वाक्यसे प्रकट है
दव्बढिओ त्ति तम्हा णास्थि णओ णियम शुद्धजाईओ। ण य पज वढिओ णाम कोई भयणाय उ विसेसो ॥६॥ जो नय अपने ही पक्षके साथ प्रतिबद्ध हो वह सम्यक्नय न