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कानजी स्वामी और जिनशासन
४५७ शुद्ध आत्माको देखता है वह समस्त जिनशासनको देखता है। -यह बात श्री आचार्यदेव समयसारकी पन्द्रहवी गाथामें कहते हैं :-'
यह सर्वांशमे ठीक नही है, क्योकि उक्त गाथामे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने ऐसा कही भी नही कहा कि 'जो शुद्ध आत्मा है वह जिन शासन है' और न 'इसलिये' अर्थका वाचक कोई शब्द ही गाथामे प्रयुक्त हुआ है । यह सब कानजी स्वामीकी निजी कल्पना है। गाथामे जो कुछ कहा गया है उसका फलितार्थ इतना ही है कि जो आत्माको अबद्धस्पृष्टादि विशेषणोके रूपमे देखता है वह समस्त जिनशासनको भी देखता है ।' परन्तु कैसे देखता है ? शुद्धात्मा होकर देखता है या अशुद्धात्मा रहकर देखता है ? किस दृष्टिसे या किन साधनोसे देखता है और आत्माके इन विशेषणोका जिनशासनको पूर्णरूपमे देखनेके साथ क्या सम्बन्ध है और वह किस रीति-नीतिसे कार्यमे परिणत किया जाता है, यह सब उसमे कुछ बतलाया नही। इन्ही सब बातोको स्पष्ट करके बतलानेकी जरूरत थी और इन्हीसे पहली र्शकाका सम्बन्ध था, जिन्हे न तो स्पष्ट किया गया है और न शकाका कोई दूसरा समाधान ही प्रस्तुत किया है-दूसरी बहुत सी फालतू बातोको प्रश्रय देकर प्रवचनको लम्बा किया गया है। सारे जिनशासनको देखने में हेतु
श्रीकानजीस्वामीने अपने प्रवचनमे कहा है कि-'शुद्ध आत्मा वह जिनशासन है, इसलिए जो जीव अपने शुद्ध आत्माको देखता है वह समस्त जिनशासनको देखता है।' इस तर्कवाक्यसे यह फलित होता है कि अपने शुद्ध आत्माको देखने-जाननेवाला जीव जो समस्त जिनशासनको देखता-जानता है उसके उस