________________
१९२
युगवीर- निवन्धावली
वरमाला डाली गई है ) तो उसकी इस कृतिमे आप लोगोको कुछ भी बोलने --- या दखल देनेका जरा भी अधिकार नही है ।
,
इससे साफ जाहिर है कि वसुदेवने इन वाक्योको, जिनमे उक्त श्लोक भी अपने असली रूपमे शामिल हैं, 'क्रोधके किसी आवेशमे नही कहा, बल्कि वडी शातिके साथ, दूसरोको शात करते हुए, इनमे स्वयवर - विवाहकी नीतिका उल्लेख किया है । उन्होने ये वाक्य साधुजनोको भी लक्ष्य करके कहे हैं जिनके प्रि क्रोधकी कोई वजह नही हो सकती, और ५४ वे पद्यमे आया हुआ "स्वयंवरगतिज्ञस्य " पद इस बातको और भी साफ बतला रहा है कि इन वाक्यो- द्वारा स्वयवरकी गति विधि अथवा नीतिका ही निर्देश किया गया है । यदि ऐसा न होता तो आचार्य - महोदय आगे चलकर किसी-न-किसी रूपमे उसका निषेध जरूर करते, परन्तु ऐसा नही किया गया और इसलिये यह कहना चाहिये कि श्रीजिनसेनाचार्यने स्वयवर - विवाहकी रीति-नीतिका ऐसा ही विधान किया है कि उसमे वरके कुलीन या अकुलीन होने का कोई नियम नही होता और न कुल-सौभाग्यका कोई प्रति-बघ ही रहता है । अत उक्त श्लोकको अप्रमाण कहना अपनी नासमझी प्रकट करना है ।
विज्ञ पाठकजन, जव स्वयवर - विवाहकी ऐसी उदार नीति है और वह सपूर्ण विवाह - विधानोमे श्रेष्ठ तथा सनातनमार्ग माना गया है, तब यह कहना शायद कुछ अनुचित न होगा कि वहुत
१. यदि क्रोधके आवेग में कहा होता तो जिनसेनाचार्य वमुदेवको 'धीर' न लिखकर 'क्रुद्ध' प्रकट करते, जैसा कि ५८ वें पद्यमे उन्होंने जराधको प्रकट किया है । यथा :--
"तच्छ्रुत्वाशु जरासंघ क्रुद्ध प्राह नृपान्नृर ।"