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विवाह-क्षेत्र-प्रकाश
१९१ स्वयवरगता' कन्या वृणीते रुचित वरम् । कुलीनमकुलीन वा न क्रमोऽस्ति स्वयंवरे ॥ ५३॥ अक्षान्तिरत्र नो युक्ता पितुर्धातुर्निजस्य वा। स्वयवरगतिज्ञस्य परस्येह विशेपतः ।। ५४ ।। कश्चिन्महाकुलीनोऽपि दुर्भगः सुभगोऽपरः । कुलसौभाग्ययोर्नेह प्रतिबन्धोस्ति कश्चन ॥ ५५ ॥ तदत्र यदि सौभाग्यमविज्ञातस्य मेऽनया। अभिव्यक्त न वक्तव्यं भवद्भिरिह किचन ॥ ५६ ॥
हरिवंशपुराण । अर्थात्-क्षुभित राजाओको अनेक प्रकारसे कोलाहल करते हुए देखकर, धीर-वीर वसुदेवजीने, गर्वित क्षत्रियो और साधुजनो दोनोको अपनी बात सुननेकी प्रेरणा करते हुए कहा-'स्वयवरको प्राप्त हुई कन्या उस वरको वरण करती-स्वीकार करती है जो उसे पसद होता है, चाहे वह वर कुलीन हो या अकुलीन, क्योकि स्वयवरमे वरके कुलीन या अकलीन होनेका कोई नियम नही होता। (अत ) इस समय कन्याके पिता तथा भाईको, अपने सम्बन्धी या दूसरे किसी व्यक्तिका और खासकर ऐसे शख्सोको, जो स्वयवरकी गति-उसकी रीति-नीति--से परिचित हैं, कुछ भी अशान्ति करनी उचित नही है। कोई महाकुलीन होते हुए भी दुर्भग होता है और दूसरा महा अकुलीन होनेपर भी सुभग हो जाता है, इससे कुल और सौभाग्यका यहाँ कोई प्रतिवध नही है । और इसलिये स्वयवरमे मुझ अविज्ञात (अज्ञातकुल-जाति अथवा अपरिचित) व्यक्तिका इस कन्याने यदि केवल सौभाग्य ही अनुभव किया है, कुलादिक नही-( और उसीको लक्ष्य करके
१ जिनदास ब्रह्मचारीने इसी श्लोकको, कुछ अक्षरोको आगे पीछे करके, अपने हरिवशपुराणमे उद्धृत किया है।