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मुनि-जीवन और आपत्काल ।
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कई कई दिनके लिए आहारका त्याग करके उपवास भी धारण कर लेते थे; अपनी शक्तिको जाँचने और उसे बढ़ानेके लिये भी आप अक्सर उपवास किया करते थे, ऊनादर रखते थे, अनेक रसोंका त्याग कर देते थे और कभी कभी ऐसे कठिन तथा गुप्त नियम भी ले लेते थे जिनकी स्वाभाविक पूर्ति पर ही आपका भोजन अवलम्बित रहता था। वास्तवमें, समंतभद्र भोजनको इस जीवनयात्राका एक साधन मात्र समझते थे । उसे अपने ज्ञान, ध्यान और संयमादिकी वृद्धि सिद्धि तथा स्थितिका सहायक मात्र मानते थे और इसी दृष्टिसे उसको प्रहण करते थे। किसी शारिरिक बलको बढ़ाना, शरीरको पुष्ट बनाना अथवा तेजोवृद्धि करना उन्हें उसके द्वारा इष्ट नहीं था; वे स्वादके लिये भी भोजन नहीं करते थे, यही वजह है कि आप भोजनके प्रासको प्रायः बिना चबाये ही-विना उसका रसास्वादन किये ही-निगल जाते थे। आप समझते थे कि जो भोजन केवल देहस्थितिको कायम रखनेके उद्देशसे किया जाय उसके लिये रसास्वादनकी जरूरत ही नहीं है, उसे तो उदरस्थ कर लेने मात्रकी जरूरत है । साथ ही, उनका यह विश्वास था कि रसास्वादन करनेसे इंद्रियविषय पुष्ट होता है, इंद्रियविषयोंके सेवनसे कभी सच्ची शांति नहीं मिलती, उलटी तृष्णा बढ़ जाती है, तृष्णाकी वृद्धि निरंतर ताप उत्पन्न करती है और उस ताप अथवा दाहके कारण यह जीव संसारमें अनेक प्रकारकी दुःखपरम्परासे पीडित होता है; * इस लिये वे क्षणिक सुखके लिये कभी इंद्रियविषयोंको पुष्ट नहीं करते थे--क्षणिक सुखोंकी
* शतदोन्मेष चलं हि सौख्यं, तृष्णामयाप्यायनमात्रहेतुः । तृष्णाभिवृविश्व तपस्यजस्त्रं तापस्तदायासयतीत्यवादीः ॥१३॥
-स्वयंभूस्तोत्र।