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स्वामी समन्तभद्र।
शुद्ध, प्रासुक तथा निर्दोष ही लेते थे। वे अपने उस भोजनके लिये किसीका निमंत्रण स्वीकार नहीं करते थे, किसीको किसी रूपमें भी
अपना भोजन करने करानेके लिये प्रेरित नहीं करते थे, और यदि उन्हें यह मालूम हो जाता था कि किसीने उनके उद्देश्यसे कोई भोजन तय्यार किया है अथवा किसी दूसरे अतिथि ( मेहमान ) के लिये तय्यार किया हुआ भोजन उन्हें दिया जाता है तो वे उस भोजनको नहीं लेते थे। उन्हें उसके लेनेमें सावधकर्मके भागी होनेका दोष मालूम पड़ता था और सावद्यकर्मसे वे सदा अपने आपको मन-वचन-काय तथा कृतकारित अनुमोदनाद्वारा दूर रखना चाहते थे । वे उसी शुद्ध भोजनको अपने लिये कल्पित और शास्त्रानुमोदित समझते थे जिसे दातारने स्वयं अपने अथवा अपने कुटुम्बके लिये तय्यार किया हो, जो देनेके स्थान पर उनके आनेसे पहले ही मौजूद हो और जिसमेंसे दातार कुछ अंश उन्हें भक्तिपूर्वक भेट करके शेषमें स्वयं संतुष्ट रहना चाहता हो--उसे अपने भोजनके लिये फिर दोबारा आरंभ करनेकी कोई जरूरत न हो । आप भ्रामरी वृत्तिसे, दातारको कुछ भी बाधा न पहुँचाते हुए, भोजन लिया करते थे। भोजनके समय यदि आगमकथित दोषों से उन्हें कोई भी दोष मालूम पड़ जाता था अथवा कोई अन्तराय सामने उपस्थित हो जाता था तो वे खुशीसे उसी दम भोजनको छोड़ देते थे
और इस अलाभके कारण चित्त पर जरा भी मैल नहीं लाते थे । इसके सिवाय आपका भोजन परिमित और सकारण होता था। आगममें मुनियोंके लिये ३२ प्रास तक भोजनकी आज्ञा है परंतु आप उससे अक्सर दो चार दस प्रास कम ही भोजन लेते थे, और जब यह देखते थे कि विना भोजन किये भी चल सकता है-नित्यनियमोंके पालन तथा धार्मिक अनुष्ठानोंके सम्पादनमें कोई विशेष बाधा नहीं आती तो