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मुनि-जीवन और आपत्काल ।
Amrani
और जिस आश्रमविधिमें अणुमात्र भी आरंभ न होता हो उसीके द्वारा उस अहिंसाकी पूर्ण सिद्धि मानते थे। उसी पूर्ण अहिंसा और उसी परम ब्रह्मकी सिद्धिके लिए आपने अंतरंग और बहिरंग दोनों प्रकारके परिग्रहोंका त्याग किया था और नैंट्रॅथ्य आश्रममें प्रविष्ट होकर अपना प्राकृतिक दिगम्बर वेष धारण किया था । इसीलिये आप अपने पास कोई कौड़ी पैसा नहीं रखते थे, बल्कि कौड़ी पैसेसे सम्बंध रखना भी अपने मुनिपदके विरुद्ध समझते थे। आपके पास शौचोपकरण (कमडल), संयमोपकरण (पीछी) और ज्ञानोपकरण (पुस्तकादिक)के रूपमें जो कुछ थोड़ीसी उपधि थी उससे भी आपका ममत्व नहीं थाभले ही उसे कोई उठा ले जाय आपको इसकी जरा भी चिन्ता नहीं थी। आप सदा भूमिपर शयन करते थे और अपने शरीरको कभी संस्कारित अथवा मंडित नहीं करते थे; यदि पसीना आकर उस पर मैल जम जाता था तो उसे स्वयं अपने हाथसे धोकर दूसरोंको अपना उजलारूप दिखलानेकी भी कभी कोई चेष्टा नहीं करते थे; बल्कि उस मलजनित परीषहको साम्यभावसे जीतकर कर्मफलको धोने का यत्न कर ते थे, और इसी प्रकार नग्न रहते तथा दूसरी सरदी गरमी आदिकी परीषहोंको भी खुशीखुशीसे सहन करते थे; इसीसे आपने अपने एक परिचर्यमें, गौरवके साथ अपने आपको 'नाटक' और 'मलमलिनतनु' भी प्रकट किया है।
समंतभद्र दिनमें सिर्फ एक बार भोजन करते थे, रात्रिको कभी भोजन नहीं करते थे, और भोजन भी आगमोदित विधिके अनुसार
ततस्तसिद्धयर्थ परमकरुणो ग्रंथमुभयं, भवानवास्याक्षीन च विकृतवषोपधिरतः ॥ ११९॥
-स्वयंभूस्तोत्र। १'कांच्या नग्नाटकोहं मलमलिनतनुः' इत्यादि पद्यमें ।