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स्वामी समन्तभद्र।
अभिलाषा करना ही वे परीक्षावानोंके लिये एक कलंक और अधर्मकी बात समझते थे। आपकी यह खास धारणा थी कि, आत्यन्तिक स्वास्थ्य -अविनाशी स्वात्मस्थिति अथवा कर्मविमुक्त अनंतज्ञानादि अवस्थाकी प्राप्ति ही पुरुषोंका-इस जीवात्माका स्वार्थ है-स्वप्रयोजन है. क्षणभंगुर भोग-क्षणस्थायी विषयसुखानुभवन-उनका स्वार्थ नहीं है, क्योंकि तृषानुषंगसे-भोगोंकी उत्तरोत्तर आकांक्षा बढ़नेसे-शारीरिक और मानसिक-दुःखोंकी कभी शांति नहीं होती । वे समझते थे कि, यह शरीर 'अजंगम' है-बुद्धिपूर्वक परिस्पंदव्यापाररहित है-और एक यंत्रकी तरह चैतन्य पुरुषके द्वारा स्वव्यापारमें प्रवृत्त किया जाता है। साथ ही ' मलवीज ' है-मलसे उत्पन्न हुआ है; मलयोनि है—मलकी उत्पत्तिका स्थान है—, 'लन्मल' है-~~मल ही इससे झरता है-, ' पूति' है-दुर्गंधियुक्त है-, 'वीभत्स' है-घृणात्मक है -, 'क्षयि' है-नाशवान् है-और · तापक' है-आत्माके दुःखोंका कारण है-; इस लिये वे इस शरीरसे स्नेह रखने तथा अनुराग बढ़ानेको अच्छा नहीं समझते थे, उसे व्यर्थ मानते थे, और इस प्रकारकी मान्यता तथा परिणतिको ही आत्महित स्वीकार करते थे * । अपनी ऐसी ही विचार
* स्वास्थ्यं यदास्यन्तिकमेष पुंसां, स्वार्थो न भोगः परिभंगुरास्मा। तषोनुषंगाम च तापशान्तिरितीदमाख्यद्भगवान्सुपार्श्वः ॥३॥ अजंगमं जंगमनेययंत्रं यथा तथा जीवधूतं शरीरं । बीभत्सु पूति क्षयि तापकं च स्नहो वृथात्रेति हितं स्वमाख्यः ॥३२॥
-स्वयंभूस्तोत्र । मलयीजं मलयोनि, गलन्मलं, पूतिगन्धवीमासं, पश्यखंगम्
रत्नकरंडक।