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स्वामी समन्तभद्र।
तथा 'वज्रांकुश' की उपमाको लिये हुए वचन भी लोगोंको आप्रिय मालूम नहीं होते थे।
समंतभद्रके वचनोंमें एक खास विशेषता यह भी होती थी कि वे स्याद्वाद न्यायकी तुलामें तुले हुए होते थे और इस लिये उनपर पक्षपातका भूत कभी सवार होने नहीं पाता था । समंतभद्र स्वयं परीक्षाप्रधानी थे, वे कदाग्रहको बिलकुल पसंद नहीं करते थे, उन्होंने भगवान् महावीर तककी परीक्षा की है और तभी उन्हें 'आप्त' रूपसे स्वीकार किया है। वे दूसरोंको भी परीक्षाप्रधानी होनेका उपदेश देते थे-उनकी सदैव यही शिक्षा रहती थी कि किसी भी तत्त्व अथवा सिद्धान्तको, बिना परीक्षा किये, केवल दूसरोंके कहनेपर ही न मान लेना चाहिये बल्कि समर्थ युक्तियोंद्वारा उसकी अच्छी तरहसे जाँच करनी चाहिये-उसके गुणदोषांका पता लगाना चाहिये और तब उसे स्वीकार अथवा अस्वीकार करना चाहिये । ऐसी हालतमें वे अपने किसी भी सिद्धान्तको जबरदस्ती दुसरोंके गले उतारने अथवा उनके सिर मँढ़नेका कभी यत्न नहीं करते थे। वे विद्वानोंको, निष्पक्ष दृष्टिसे, स्व-पर सिद्धान्तों पर खुला विचार करनेका पूरा अवसर देते थे। उनकी सदैव यह घोषणा रहती थी कि किसी भी वस्तुको एक ही पहलुसे-एक ही ओरसे मत देखो, उसे सब ओरसे और सब पहलुओंसे देखना चाहिये, तभी उसका यथार्थ ज्ञान हो सकेगा । प्रत्येक वस्तुमें अनेक धर्म अथवा अंग होते हैं-इसीसे वस्तु अनेकान्तात्मक है-उसके किसी एक धर्म या अंगको लेकर सर्वथा उसी रूपसे वस्तुका प्रतिपादन करना एकान्त है;
और यह एकान्तवाद मिथ्या है, कदाग्रह है, तत्त्वज्ञानका विरोधी है, अधर्म है और अन्याय है। स्याद्वादन्याय इसी एकान्तवादका निषेध