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गुणादिपरिचय ।
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करता है; सर्वथा सत्-असत्-एक-अनेक-नित्य-अनित्यादि संपूर्ण एकान्तोंसे विपक्षीभूत अनेकान्ततत्व ही उसका विषय है । वह सप्तभंगे तथा नयविषक्षाको लिये रहता है और हेयादेयका विशेषक है; उसका 'स्यात्' शब्द ही वाक्योंमें अनेकान्तताका द्यातक तथा गम्यका विशेषण है और वह 'कथंचित् ' आदि शब्दोंके द्वारा भी अभिहित होता है । यथा
वाक्येष्वनेकान्तद्योती गम्यं प्रति विशेषणं । स्यानिपातोऽर्थयोगित्वात्तव केवलिनामपि ॥ १०३॥ स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागातिक वृत्तचिद्विधिः । सप्तभंगनयापेक्षो हेयादेयविशेषकः ॥ १०४ ॥
-देवागम। अपनी घोषणाके अनुसार, समंतभद्र प्रत्येक विषयके गुणदोषोंको स्याद्वाद न्यायकी कसौटी पर कसकर विद्वानों के सामने रखते थे; वे उन्हें बतलाते थे कि एक ही वस्तुतत्त्वमें अमुक अमुक एकान्त पक्षोंके माननेसे
१'सर्वथासदसदेकानेकनित्यानित्यादिसकलैकान्तप्रत्यनीकानेकान्ततस्वविषयः स्याद्वादः'। देवागमवृत्तिः।
२ स्यादस्ति, स्यानास्ति, स्यादस्तिनास्ति, स्यादवक्तव्य, स्यादस्त्यवकव्य, स्यानास्त्यवक्तव्य और स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्य, ये सात भंग हैं जिनका विशेष स्वरूप तथा रहस्य भगवान् समंतभद्रके 'आप्तमीमांसा ' नामक 'देवागम' प्रथमें दिया हुआ है।
३ इन्यार्थिक-पर्यायार्थिकके विभागको लिये हुए; नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ऐसे सात नय हैं। इनमें से पहली तीन 'भ्यार्थिक ' और शेष 'पर्यायार्थिक ' कही जाती है । इसी तरह पहली चार 'अर्थनय ' और शेष तीन 'शब्दनय' कही जाती हैं । द्रव्यार्थिकको शुद्ध, निश्चय तथा भूतार्थ और पर्यायार्थिकको अशुद्ध व्यवहार तथा अभूतार्थ नय भी कहते हैं। इन नयोंका विस्तृत स्वरूप 'नयचक्र' तथा ' श्लोकवार्तिकादि ' ग्रंथोंसे जानना चाहिये।