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गुणादिपरिचय ।
Anonymonam
भावनाकी गंध तक भी नहीं रहती थी। वे स्वयं सन्मार्ग पर आरूढ ये और यह चाहते थे कि दूसरे लोग भी सन्मार्गको पहचाने और उस पर चलना आरंभ करें। साथ ही, उन्हें दूसरोंको कुमार्गमें फँसा हुआ देखकर बड़ा ही खेद* तथा कष्ट होता था और इस लिये उनका वाक्प्रयत्न सदा उनकी इच्छाके अनुकूल ही रहता था और वे उसके द्वारा ऐसे लोगोंके उद्धारका अपनी शक्तिपर उद्योग किया करते थे। ऐसा मालूम होता है कि स्वात्महितसाधनके बाद दूसरोंका हितसाधन करना ही उनके लिये एक प्रधान कार्य था और वे बड़ी ही योग्यताके साथ उसका संपादन करते थे। उनकी वाक्परिणति सदा क्रोधसे शून्य रहती थी, वे कभी किसीको अपशब्द नहीं कहते थे, न दूसरोंके अपशब्दोंसे उनकी शांति भंग होती थी; उनकी आँखोंमें कभी सुखी नहीं आती थी; हमेशा हँसमुख तथा प्रसन्नवदन रहते थे; बुरी भावनासे प्रेरित होकर दूसरोंके व्यक्तित्व पर कटाक्ष करना उन्हें नहीं आता था और मधुरभाषण तो उनकी प्रकृतिमें ही दाखिल था । यही वजह थी कि कठोर भाषण करनेवाले भी उनके सामने आकर मृदुभाषी बन जाते थे, अपशब्दमदान्धोंको भी उनके आगे बोल तक नहीं आता था और उनके 'वज्रपात'
* आपके इस खेदादिको प्रकट करनेवाले तीन पद्य, नमूनेके तौर पर, इस प्रकार हैं
मांगवद्भूतसमागमेशः शक्त्यन्तरव्यक्तिरदैवसृष्टिः। इत्यात्मशिमोदरपुष्टितुष्टैनिन्हींमबैहीं ! मुदवा प्रलब्धाः ॥ ३५ ॥ दृष्टेऽविशिष्टे जननादिहेतौ विशिष्टता का प्रतिसत्यमेषां । स्वभावतः किं न परस्य सिविरसावकानामपि हा ! प्रपातः ॥३५॥ स्वच्छन्दवृत्तेजगतः स्वभावादुरनाचारपथेवदोषं।। निर्युष्य दीक्षासममुक्तिमानास्वटियामा बत! विभ्रमन्ति ॥१७॥
-युच्यनुशासन।