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स्वामी समन्तभद्र।
न्तोंके महत्त्वको विद्वानोंके हृदयपटलपर अंकित कर देनेकी सुरुचि इतनी बढ़ी हुई थी कि उन्होंने सारे भारतवर्षको अपने वादका लीलास्थल बनाया था । वे कभी इस बातकी प्रतीक्षा नहीं करते थे कि कोई दूसरा उन्हें वादके लिये निमंत्रण दे और न उनकी मनःपरिणति उन्हें इस बातमें संतोष करनेकी ही इजाजत देती थी कि जो लोग अज्ञान भावसे मिथ्यात्वरूपी गा (खड्डों) में गिरकर अपना आत्मपतन कर रहे हैं उन्हें वैसा करने दिया जाय । और इस लिये, उन्हें जहाँ कहीं किसी महावादी अथवा किसी बड़ी वादशालाका पता लगता था वे वहीं पहुँच जाते थे और अपने वादका डंका* बजाकर विद्वानोंको स्वतः वादके लिये आह्वान करते थे। डंकेको सुनकर वादीजन, यथानियम, जनताके साथ वादस्थानपर एकत्र हो जाते थे और तब समंतभद्र उनके सामने अपने सिद्धान्तोंका बड़ी ही खूबीके साथ विवेचन करते थे और साथ ही इस बातकी घोषणा कर देते थे कि उन सिद्धान्तों से जिस किसी सिद्धान्तपर भी किसीको आपत्ति हो वह वादके लिये सामने आजाय । कहते हैं कि समन्तभद्रके स्याद्वाद न्यायकी तुलामें तुले हुए तत्त्वभाषणको सुनकर लोग मुग्ध हो जाते थे और उन्हें उसका कुछ भी विरोध करते नहीं बनता था-यदि कभी
* उन दिनों समन्तभद्रके समयमें-फाहियान (ई.स. ४०० ) और हेनत्संग (ई० स० ६३० ) के कथनानुसार, यह दस्तूर था कि नगरमें किसी सार्वजनिक स्थानपर एक डंका ( मेरी या नकारा) रक्खा जाता था और जो कोई विद्वान् किसी मतका प्रचार करना चाहता था अथवा वादमें, अपने पाण्डित्य और नैपुण्यको सिद्ध करनेकी इच्छा रखता था यह, वादघोषणाके तौरपर, उसकेको बजाता था।
-हिस्टरी आफ कनडीज़ लिटरेचर ।