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गुणादिपरिचय । वे बहुत सोच समझकर वादमें प्रवृत्त हों । शिलालेखमें इस पद्यको समन्तभद्रके वादारंभ-समारंभ समयकी उक्तियोंमें ही शामिल किया है *। परंतु यह पद्य चाहे जिस राजसभामें कहा गया हो, इसमें संदेह नहीं कि इसमें जिस घटनाका उल्लेख किया गया है वह बहुत ही महत्त्वकी जान पड़ती है। ऐसा मालूम होता है कि धूर्जटि उस वक्त एक बहुत ही बढाचदा प्रसिद्ध प्रतिवादी था, जनतामें उसकी बड़ी धाक थी और वह समंतभद्रके सामने बुरी तरहसे पराजित हुआ था। ऐसे महावादीको लीलामात्रमें परास्त कर देनेसे समन्तभद्रका सिक्का दूसरे विद्वानों पर और भी ज्यादा अंकित हो गया और तबसे यह एक कहावतसी प्रसिद्ध हो गई कि 'घूर्जटि जैसे विद्वान् ही जब समंतभद्रके सामने वादमें नहीं ठहर सकते तब दूसरे विद्वानोंकी क्या सामर्थ्य है जो उनसे वाद करें।
समन्तभद्रकी वादशक्ति कितनी अप्रतिहत थी और दूसरे विद्वानोंपर उसका कितना अधिक सिक्का तथा प्रभाव था, यह बात ऊपरके अवतरणोंसे बहुत कुछ स्पष्ट हो जाती है, फिर भी हम यहाँ पर इतना
और बतला देना चाहते हैं कि समन्तभद्रका वाद-क्षेत्र संकुचित नहीं था । उन्होंने उसी देशमें अपने वादकी विजयदुंदुभि नहीं बजाई जिसमें वे उत्पन्न हुए थे, बल्कि उनकी वादप्रीति, लोगोंके अज्ञान भावको दूर करके उन्हें सन्मार्गकी ओर लगानेकी शुभ भावना और जैन सिद्धा
* जैसा कि उन उत्तियोंके पहले दिये हुए निम्न वाक्यसे प्रकट है" यस्यैवंविधा विद्यावादारंमसंरंभविभितामिम्यक्तयः सूकपः ।" + आफरेडके केटेलॉग ' में धूर्जटिको एक 'कवि' Poet लिखा है और कवि अच्छे विद्वानको कहते हैं, जैसा कि इससे पहले फुटनोटमें दिये हुए उसके क्षणोंसे मालम होगा।