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स्वामी समंतभद्र ।
दात्मक ग्रंथ माना जाय तो उक्त पदसे यह भी मालूम नहीं होता कि वह आप्तमीमांसा प्रन्थ उस भाष्यका मंगलाचरण है, बल्कि वह उसका एक प्रकरण जान पड़ता है । प्रस्तावनाप्रकरण होना और बात है और मंगलाचरण होना दूसरी बात । एक प्रकरण मंगलात्मक होते हुए भी टीकाकारों के मंगलाचरणकी भाषा में मंगलाचरण नहीं कहलाता । टीकाकारोंका मंगलाचरण, अपने इष्टदेवादिककी स्तुतिको लिये हुए, या तो नमस्कारात्मक होता है या आशीर्वादात्मक, और कभी कभी उसमें टीका करने की प्रतिज्ञा भी शामिल रहती है; अथवा इष्टकी स्तुतिध्यानादिपूर्वक टीका करने की प्रतिज्ञाको ही लिये हुए होता है; परन्तु वह एक ग्रंथके रूपमें अनेक परिच्छेदोंमें बँटा हुआ नहीं देखा जाता । आप्तमीमांसा में ऐसा एक भी पद्य नहीं है जो नमस्कारात्मक या आशीर्वादात्मक हो अथवा इष्टकी स्तुतिध्यानादिपूर्वक टीका करने की प्रतिज्ञाको लिये हुए हो; उसके अन्तिम पद्यसे भी यह मालूम नहीं होता कि वह किसी ग्रंथका मंगलाचरण है, और यह बात पहले जाहिर की जा चुकी है कि उसमें दशपरिच्छेदोंका जो विभाग है वह स्वयं समन्तभद्राचायका किया हुआ है । ऐसी हालतमें यह प्रतीत नहीं होता कि, आप्तमीमांसा गंधहस्तिमहाभाष्यका आदिम मंगलाचरण है--अर्थात्, वह भाष्य 'देवागमनभोयानचामरादिविभूतयः । मायाविष्वपि - दृश्यंते नातस्त्वमसि नो महान् ॥' इस पद्यसे ही आरंभ होता है। और इससे पहले उसमें कोई दूसरा मंगल पद्य अथवा वाक्य नहीं है । हो सकता है कि समन्तभद्रने महाभाष्यकी आदिमें आप्तके गुणों का कोई खास स्तवन किया हो और फिर उन गुणोंकी परीक्षा करने अथवा उनके विषयमें अपनी श्रद्धा और गुणज्ञताको संसूचित करने आदि के लिये 'आप्तमीमांसा' नामके प्रकरणकी रचना की हो अथवा पहलेसे रचे