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प्रन्य-परिचय।
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हुए अपने इस ग्रंथको वहाँ उद्धृत किया हो । और यह भी हो सकता है कि मूलग्रंथके मंगलाचरणको ही उन्होंने महाभाष्यका मंगलाचरण स्वीकार किया हो; जैसे कि पूज्यपादकी बाबत कुछ विद्वानोंका कहना है कि उन्होंने तत्त्वार्थसूत्रके मंगलाचरणको ही अपनी 'सर्वार्थसिद्धि' टीकाका मंगलाचरण बनाया है और उससे भिन्न टीकामें किसी नये मंगलाचरणका विधान नहीं किया। दोनों ही हालतोंमें 'आप्तमीमांसा' प्रकरणसे पहले दूसरे मंगलाचरणका-आप्तस्तवनका—होना ठहरता है, और इसीकी अधिक संभावना पाई जाती है।
(७) आप्तमीमांसा ( देवागम ) की 'अष्टसहस्त्री' टीका पर लघु समन्तभद्रने ' विषमपदतात्पर्यटीका' नामकी एक टिप्पणी लिखी है, जिसकी प्रस्तावनाका प्रथम वाक्य इस प्रकार है:
* परंतु कितने ही विद्वान् इस मतसे विरोध भी रखते हैं जिसका हाल आगे चलकर मालूम होगा।
१ डा. सतीशचन्द्रने, अपनी 'हिस्टरी आफ इंडियन लॉजिक में, लघुसमंत. भद्रको ई० सन् १००० (वि० सं० १०५७ )के करीबका विद्वान् लिखा है। परंतु विना किसी हेतुके उनका यह लिखना ठीक प्रतीत नहीं होता; क्योंकि अष्टसहस्रीके अंतमें 'केचित् ' शब्दपर टिप्पणी देते हुए, लघुसमन्तभद्र उसमें वसुनन्दि आचार्य और उनकी देवागमवृत्तिका उल्लेख करते हैं । यथा"वसुनन्दिाचार्याः केचिच्छब्देन प्रायाः, यतस्तैरेव स्वस्य वृस्यन्ते लिखितोयं लोकः" इत्यादि । और वसुनन्दि आचार्य विक्रमकी १२ वीं शताब्दीके अन्तमें हुए है, इसलिये लघुसमंतभद्र विक्रमकी १३ वीं शताब्दीसे पहले नहीं हुए, यह स्पष्ट है । रत्नकरंडक श्रावकाचारकी प्रस्तावनाके पृष्ठ ६ पर 'चिक (लघु) समन्तभद्र के विषयमें जो कुछ उल्लेख किया गया है उसे ध्यानमें रखते हुए ये विक्रमकी प्रायः १४ वीं शताब्दीके विद्वान् मालूम होते हैं और यदि 'माघनन्दी' नामान्तरको लिये हुए तथा अमरकीर्तिके शिष्य न हों तो ज्यादेसे ज्यादा विक्रमकी १३ वीं शताब्दीके विद्वान् हो सकते हैं।