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ग्रन्य-परिचय ।
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है; परन्तु वह श्वेताम्बरोंका कोई ग्रंथ भी हो सकता है जिसकी इस प्रकारके उल्लेख-अवसरपर अधिक संभावना पाई जाती है। क्योंकि दोनों ही सम्प्रदायोंमें एक नामके अनेक ग्रंथ होते रहे हैं, और नामोंकी यह परस्पर समानता हिन्दुओं तथा बौद्धोंतकमें पाई जाती हैं । अतः इस नाममात्रके उल्लेखसे किसी विशेषताकी उपलब्धि नहीं होती।
(६) 'न्यायदीपिका' में आचार्य धर्मभूषणने अनेक स्थानों पर ' आप्तमीमांसा' के कई पद्योंको उद्धृत किया है, परंतु एक जगह सर्वज्ञकी सिद्धि करते हुए, वे उसके 'सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः' नामक पद्यको निम्न वाक्यके साथ उधृत करते हैं
" तदुक्तं स्वामिभिर्महाभाष्यस्यादावाप्तमीमांसाप्रस्तावे-"
इस वाक्यसे इतना पता चलता है कि महाभाष्यकी आदिमें 'आप्तमीमांसा' नामका भी एक प्रस्ताव है-प्रकरण है-और ऐसा होना कोई अस्वाभाविक नहीं है; एक ग्रंथकार, अपनी किसी कृतिको उपयोगी समझकर अनेक ग्रंथोंमें भी उद्धृत कर सकता है। परंतु इससे यह मालूम नहीं होता कि वह महाभाष्य उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रका ही भाष्य है । वह कर्मप्राभृत नामके सिद्धान्तशास्त्रका भी भाष्य हो सकता है और उसमें भी 'आप्तमीमांसा' नामके एक प्रकरणका होना कोई असंभव नहीं कहा जा सकता । इसके सिवाय ' आप्तमीमांसाप्रस्तावे' पदमें आए हुए 'आप्तमीमांसा' शब्दोंका वाच्य यदि समन्तभद्रका संपूर्ण ' आप्तमीमांसा' नामका देशपरिच्छे
• १ यह ग्रंथ शक सं० १३०७ ( वि० सं० १४४२ )में बनकर समाप्त हुआ है और इसके रचयिता धर्मभूषण 'अभिनव धर्मभूषण' कहलाते हैं।