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स्वामी समन्तभद्र।
उन्हें गुजराती परिचयमें 'दिगम्बर जती' प्रकट किया है । 'क्षपगकान् ' पदसे अभिप्राय यहाँ दिगम्बर यतियोंका ही है, यह बात मुनिसुन्दर सूरिकी ' गुर्वावली' के निम्न पद्यसे और भी स्पष्ट हो जाती है, जिसमें इसी पद्यका अर्थ अथवा भाव दिया हुआ है और 'क्षपणकान् ' की जगह साफ तौरसे 'दिग्वसनान् ' पदका प्रयोग किया गया है
खोमाणभूभृत्कुलजस्ततोऽभूत् समुद्रसूरिः स्ववशं गुरुयैः। चकार नागदपार्श्वतीर्थ
विद्याम्बुधिर्दिग्वसनान्विजित्य ॥ ३९ ॥ इसी तरह पर 'प्रवचनपरीक्षा' आदि और भी श्वेताम्बर ग्रंथोंमें दिगम्बरोंको 'क्षपणक' लिखा है । अब एक उदाहरण दिगम्बर ग्रंथोंका भी लीजिये
तरुणंउ बूढउ रुयडउ सूरउ पंडिउ दिन्छ ।
खवणउ वंदउ सेवडउ मूढउ मण्णइ सन्बु ॥८३॥ यह योगीन्द्रदेवकृत ' परमात्मप्रकाश ' का पद्य है। इसमें निश्चय नयकी दृष्टिसे यह बतलाया गया है कि वह मुढात्मा है जो ( तरुण वृद्धादि अवस्थाओंके स्वरूपसे भिन्न होने पर भी विभाव परिणामोंके आश्रित होकर) यह मानता है, कि मैं तरुण हूँ, बूढा हूँ, रूपवान् हूँ, शूर हूँ, पंडित हूँ, दिव्य हूँ, क्षपणक (दिगम्बर) हूँ, बंदक (बौद्ध) हूँ, अथवा श्वेतपट ( श्वेताम्बर ) हूँ। यहाँ क्षपणक, वंदक और तपट, तीनोंका एक साथ उल्लेख होनेसे यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि 'क्षपणक' शब्द दिगम्बरोंके लिये खास तौरसे व्यवहृत होता है।
१ तरुणः वृद्धः रूपस्वी शूरः पंडितः दिव्यः । क्षपणक: वंदकः श्वेतपटः मूढः मन्यते सर्वम् ॥