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समय-निर्णय ।
१४१ इसके सिवाय श्वेताम्बराचार्य हेमचंद्र और दिगम्बराचार्य श्रीधरसेनने अपने अपने कोशग्रंथोंमें 'नग्न' शब्दका एक अर्थ 'क्षपणक' दिया है'नमो विवाससि मागधे च क्षपणके ' । (हेमचंद्रः) 'नपत्रिषु विवस्त्रे स्यात्पुंसि क्षपणवन्दिनोः।' (श्रीधरसेनः)
और इससे यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि 'क्षपणक' शब्द जब किसी साधुके लिये प्रयुक्त किया जाता है तो उसका अभिप्राय ' नग्न' अथवा दिगम्बर साधु होता है।
'क्षपणक' शब्दकी ऐसी हालत होते हुए, विक्रमादित्यकी सभाके 'क्षपणक' रत्नको श्वेताम्बर बतलाना बहुत कुछ आपत्तिके योग्य जान पड़ता है, और संदेहसे खाली नहीं है।
वास्तवमें सिद्धसेन दिगम्बर थे या श्वेताम्बर, यह एक जुदा ही विषय है और उसे हम एक स्वतंत्र लेखके द्वारा स्पष्ट कर देना चाहते हैं; अवसर मिलने पर उसके लिये जरूर यत्न किया जायगा ।
पूज्यपाद-समय । दूसरे विद्वानोंकी युक्तियोंकी आलोचनाके बाद, अब हम देखते हैं कि स्वामी समन्तभद्र कब हुए हैं । समन्तभद्र जैनेंद्रव्याकरण और सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रंथोंके कर्ता ' देवनन्दि' अपरनाम 'पूज्यपाद' आचार्यसे पहले हुए हैं, यह बात निर्विवाद है। श्रवणबेलगोलके शिलालेखमें भी समन्तभद्रको पूज्यपादसे पहलेका विद्वान् लिखा है। ४० वें शिलालेखम समन्तभद्रके परिचय-पद्यके बाद 'ततः' शब्द लिख
१ टीकांश:-'खवणउ वदउ सेवडउ' क्षपणको दिगम्बरोऽहं वंदको बौदोहं श्वेतपटादिलिंगधारकोहमिति मूढात्मा सर्वे मन्यत इति ।......... ब्रह्मदेवः ।
२ समन्तभद्रके परिचयका यह पद्य और १०८ वें शिलालेखका पद्य भी, दोनों, ‘गुणादिपरिचय' में उद्धृत किये जा चुके हैं।