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स्वामी समन्तभद्र ।
यह ठीक है कि श्वेताम्बर सम्प्रदायमें आचार्य मल्लवादीको वीरसंवत् ८८४ का विद्वान् लिख है+और उसीको लेकर मुनिजीने उन्हें विक्रमकी पाँचवीं शताब्दीका विद्वान् प्रतिपादन किया है । परन्तु आचार्य मनुवादीने बौद्धाचार्य 'धर्मोत्तर'की 'न्यायविन्दु-टीका' पर 'धर्मोत्तर-टिप्पणक' नामका एक टिप्पण लिखा है, और आचार्य धर्मोत्तर ईसाकी ९ वीं शताब्दी ( ई० सन् ८३७-८४७ के करीब ) के विद्वान् थे, इस लिये मल्लवादीका वीरसंवत् ८८४ में होना असंभव है; ऐसा डाक्टर सतीशचंद्र अपने मध्यकालीन न्यायके इतिहासमें, सूचित करते हैं । साथ ही, यह प्रकट करते हैं कि यह संवत् ८८४, वीर संवत् न होकर, या तो विक्रम संवत् है और या शकसंवत् । विक्रम संवत् ( ई० सन् ८२७ ) की हालतमें मल्लवादी धर्मोत्तरके समकालीन थे और शक संवत् ( ई० स० ९६२ ) की हालतमें वे धर्मोत्तरसे एक
पृ. ३०४ ) और मुनि जिनविजयजीने जिनको 'सिद्धसेनके समकालीन और सहवासी महाकवि' बतलाया है ( जैनहितैषी, नवम्बर सन् १९१९)।
+-" श्रीवीरवत्सरादथशताष्टके चतुरशीतिसंयुक्त।
जिग्ये स मल्लवादी बौद्धस्तियन्तरोश्चापि ॥" यह पद्य 'न्यायाफ्तार-वृत्ति'की प्रस्तावनामें 'प्रभावकचरित' के नामसे उद्धृत किया है।
१ मूल ग्रंथ 'न्यायविन्दु' आचार्य 'धर्मकीर्ति' का लिखा हुआ ह जो ईसाकी सातवीं शताब्दीके विद्वान् थे। देखो सतीशचन्द्रकी हिस्टरी आफ इंडियन लाजिक।
२ इस 'धर्मोसर-टिप्पणक' की एक प्रति ताड़पत्रोंपर अन्हिलपाइ पाटनमें सुरक्षित है और सं०१३३१ की लिखी हुई बतलाई जाती है । उसके अन्त में लिखा है-"इति धर्मोसरटिप्पनके श्रीमल्लवाद्याचार्यकृते तृतीयः परिच्छेदः समाप्तः मङ्गलं महाश्रीः ॥" (History of M. S. of Indian Logic P. 34)