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समय-निर्णय ।
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और ई० सन् ५८७ में उसका देहान्त हो चुका था। इसी लिये डाक्टर सतीशचंद्रने, अपनी 'मध्यकालीन न्याय के इतिहासकी पुस्तकमें, सिद्धसेनको ई० सन् ५३३ के करीबका और न्यायावतारकी प्रस्तावनामें, सन् ५५० के करीबका विद्वान् माना है, और उज्जयिनीके विक्रमादित्यके विषयमें, उन विद्वानोंकी रायको स्वीकार किया है जिन्होंने विक्रमादित्य * का समीकरण मालवाके उस राजा यशोधर्मदेवके साथ किया है जिसने, अल्बेरुनीके कथनानुसार, ई० सन् ५३३ में कोरूर (Korur ) स्थान पर हूणों को परास्त किया था। ऐसी हालतमें, यह स्पष्ट है कि सिद्धसेन दिवाकर विक्रमकी पहली शताब्दीके विद्वान् नहीं थे, बल्कि उसकी छठी शताब्दी अथवा ईसाकी पाँचवीं और छठी शताब्दीके विद्वान् थे। इस विषयमें, मुनि जिनविजयजी जैनसाहित्यसंशोधकद्वितीय अंकके पृष्ठ ८२ पर, लिखते हैं
"सिद्धसेन ईसाकी ६ ठी शताब्दांसे बहुत पहले हो गये हैं। क्योंकि विक्रमकी पांचवीं शताब्दीमें हो जानेवाले आचार्य मल्लवादीने सिद्धसेनके सम्मतितर्क ऊपर टीका लिखी थी । हमारे विचारसे सिद्धसेन विक्रमकी प्रथम शताब्दिमें हुए हैं।"
सहाक्षिवेदसंख्यं शककालममास्य चैत्रशुक्लादौ ।
अस्तिमिते भानार्यवनपुरे सौम्यदिवसाये ॥८॥ १ देखो विन्सेण्ट स्मिथकी 'अर्ली हिस्टरी आफ इंडिया' तृ० सं०, पृ. ३०५,
* ' विक्रमादिस्य' नामके-इस उपाधिके धारक-कितने ही राजा हो गये हैं । गुप्तवंशके चंद्रगुप्त द्वितीय और स्कन्दगुप्त खास तौर पर विक्रमादित्य ' प्रसिद्ध थे। इनके और इनके मध्यवर्ती कुमारगुप्तके राज्यकालमें ही-ईसाकी पाँचवीं शताब्दीमें-' कालिदास' नामके उन सुप्रसिद्ध विद्वानका होना, पिछली तहकीकातसे, पाया जाता है जिन्हें विक्रमादित्यकी सभाके नवरत्नोंमें परिगणित किया गया है (बि. ए. स्मिथकी अली हिस्टरी ऑफ इंडिया, तृ. संस्करण,