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स्वामी समन्तभद्र।
दूसरा कोई विद्वान् नहीं था' * । साथ ही, प्रकट करते हैं कि बौद्ध ग्रंथोंमें भी जैनसाधुओंको 'क्षपणक' नामसे नामांकित किया है, प्रमाणके लिये 'अवदानकल्पलता' के दो पद्य + भी उद्धृत किये हैं,
और इस तरह पर यह सूचित किया है कि उक्त 'क्षपणक' नामका विद्वान् बौद्ध भिक्षु नहीं था । इसमें संदेह नहीं कि 'क्षपणक' जैनसाधुको कहते हैं । यदि वास्तवमें सिद्धसेन विक्रमादित्यकी सभाके ये ही क्षपणक विद्वान् थे और इस लिये वराहमिहिरके समकालीन थे तो उनका समय ईसाकी प्रायः छठी शताब्दी जान पड़ता है। क्यों कि वराहमिहिरका अस्तित्व समय ई० सन् ५०५ से ५८७ तक पाया जाता है-उसने अपनी ज्योतिषगणनाके लिये शक सं० ४२७ (ई० सन् ५०५) को अब्दपिण्डके तौरपर पसंद किया था x
* I am inclined to believe that Sidhasen was no other than Kshapnaka (a jain sage) who is traditionally known to the Hindus to have been one of the nine gems that adorned the court of Vikramaditya, (H. M. S. Indian Lojic p. 15.) + वे पद्य इस प्रकार हैं
भगवद्भाषितं तत्तु सुभद्रेण निवेदितम् । श्रुत्वा क्षपणकः क्षिप्रमभूद्वेषविषाकुलः ॥९॥ तस्य सर्वज्ञता वेत्ति सुभद्रो यदि मदिरा । तदेष क्षपणश्रद्धा त्यक्ष्यति श्रमणादरात् ॥
-अ०, ज्योतिष्कावदान । xदेखोगा. सतीशचद्रकी न्यायावतारकी प्रस्तावना और 'हिस्टरी आफ इंडिबन लाजिक, जिनमें आपने वराहमिहिरकी 'पंचसिद्धान्तिका' का यह पथ भी उदात किया है