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समय-निर्णय।
'द्वात्रिंशिकाएँ मिलती हैं उन सबमें ३२ पद्योंका कोई नियम नहीं देखा जाता-आठवी द्वात्रिंशिकामें २६, ग्यारहवीमें २८, पंद्रहवीं में ३१, उन्नीसवीमें भी ३१, दसवीं) ३४ और इक्कीसवीमें ३३ पय पाये जाते हैं *। ऐसी हालतमें 'न्यायावतार के लिये ३२ पोका कोई आग्रह नहीं किया जा सकता, और न यही कहा जा सकता है कि ३१ पद्योंसे उसके परिमाणमें कोई वाधा आती है ।
अब देखना चाहिये कि सिद्धसेन दिवाकर कब हुए हैं और समंतभद्र उनसे पहले हुए या कि नहीं । कहा जाता है कि सिद्धसेन दिवाकर उज्जयिनीके राजा विक्रमादित्यकी सभाके नवरत्नोंमेंसे एक ल्न थे, और उन नवरत्नोंके नामोंके लिये 'ज्योतिर्विदाभरण' ग्रंथका निम्न पद्य पेश किया जाता हैधन्वंतरिः क्षपणकोऽमरसिंहशंकुर्वेतालभट्टघटसर्परकालिदासाः । ख्यातो वाराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिनेव
विक्रमस्य ॥ इस पद्यमें, यद्यपि, "सिद्धसेन' नामका कोई उल्लेख नहीं है परन्तु 'क्षपणक' नामके जिस विद्वानका उल्लेख है उसीको 'सिद्धसेन दिवाकर' बतलाया जाता है । डाक्टर सतीशचन्द्र विद्याभूषण तो, इस विषयमें अपनी मान्यताका उल्लेख करते हुए, यहाँ तक लिखते हैं कि जिस क्षपणक ( जैनसाधु ) को हिन्दुलोग विक्रमादित्यकी सभाको भूषित करनेवाले नवरत्नों से एक रत्न समझते हैं वह सिद्धसेनके सिवाय
* देखो 'श्रीसिद्धसेनदिवाकरकृत ग्रंथमाला' जिसे 'जैनधर्मप्रसारक सभा' भावनगरने वि० सं० १९६५ में छपाकर प्रकाशित किया ।