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________________ अथ श्री संघपट्टक: ( ३७७) अर्थः--- ए वधुं कथं तेमां सार अर्थ वाटलो को बेजे जिन परमात्मानुं प्रवचन वे ते निश्चे सम्यक्त तथा ज्ञान दर्शन चारिना समुदायरूपी ने कुमतादि समस्ततो मिथ्यात्वरुप बे ने वळी श्राद्ध आदिक जे कुतीर्थि लोकोनां कर्म तेने जे श्रावक थश्ने नगवाननी प्रतिमाना पूजनादिकनी पेठ यातो आपणे करवा योग्य बे एवी बुद्धिए करीने ते समस्त कुतीर्थिकनां कर्मने पण करे बे ते पुरुपने पूर्वे हे सर्व अनुष्ठान निष्फळ थाय बे एमां ते शुं कहेतुं ए सर्वमांथी एके पण होय तो पण निष्फळ थाय बे अथवा तेनो अंश लेश मात्र पण जो दोय तो तेनुं पण सर्व अनुष्टान ए प्रकारे निश्चे निष्फळ थाय बे. टीका:- पशुक्तं ॥ श्राद्धप्रपार विश शिग्रहमाघमाला सं: क्रांतिपूर्वपरतीर्थिकपर्वमालाः ॥ पापावदा विगलडुज्वलयुक्ति जाला जैनाः स्ववेश्मसु कथंरचयंति वालाः ॥ अर्थः- जे माटे ते वात शास्त्रमां कही वे जे श्राद्ध तथा पर्व मंगाववी ते, तथा सूर्य चंद्रनुं ग्रहण तथा माघमाला तथा संक्रांति श्रादिक जे अन्य तीर्थिकना पर्वनो समूह ते पापनेजं वहन करनार वे ने सर्व पर्व जे से सारी निर्मळ युक्तिना समूहथी रहित े तेने जैन लोक पोताना घरने विषे रचे एटले शुं करे ? नज करे एटले ज्ञानी होय ते तो ए पर्व करे पण जैनी तो नज करे. 4 टीका: -- तथा कुगुरुर पियोजूंयांस्युत्सूत्रपदा निमज्ञापयति तदाज्ञयावर्त्तमानस्य सर्वमेतद्भवहेतु रिति किमद्भुतंयावतायः ४८
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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