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________________ ३५८ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ३८६, ३८७ भक्ति-राग है, इस तरह दोनों ही अपनेको एक गुरुके शिष्य समझकर, और निरन्तर दोनोंका सत्संग रहा करता है यह जानकर, भाई जैसी बुद्धिसे यदि उस प्रकारसे प्रेमपूर्वक रहा जाय तो वह बात विशेष योग्य है । ज्ञानी-पुरुषके प्रति मिनभावको सर्वथा दूर करना योग्य है । ३८६ बम्बई, आसोज सुदी ५ शनि. १९४९ आत्माको समाधिस्थ होनेके लिये-आत्मस्वरूपमें स्थिति होनेके लिये-जिस मुखमें सुधारस बरसता है, वह एक अपूर्व आधार है। इसलिये किसी प्रकारसे उसे बीज-ज्ञान भी कहो तो कोई हानि नहीं। केवल इतना ही भेद है कि ज्ञानी-पुरुष जो उससे आगे है, यह जाननेवाला होना चाहिये कि वह ज्ञान आत्मा है। . द्रव्यसे द्रव्य नहीं मिलता, यह जाननेवालेका कोई कर्तव्य नहीं कहा जा सकता। परन्तु वह किस समय ? वह उसी समय जब कि स्वद्रव्यको द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे यथावस्थित समझ लेनेपर, स्वद्रव्य स्वरूप-परिणामसे परिणमित होकर, अन्य द्रव्यके प्रति सर्वथा उदास होकर, कृतकृत्य होनेपर, कुछ कर्त्तव्य नहीं रहता; ऐसा योग्य है, और ऐसा ही है। बम्बई, आसोज सुदी ९ बुध. १९४९ (१) खुले पत्रमें सुधारसके विषयमें प्रायः स्पष्ट ही लिखा था, उसे जान-बूझकर लिखा था । ऐसा लिखनेसे उलटा परिणाम आनेवाला नहीं, यह जानकर ही लिखा था। इस बातकी कुछ कुछ चर्चा करनेवाले जीवको यदि वह बात पढ़नेमें आवे तो वह बात उससे सर्वथा निर्धारित हो जाय, यह नहीं हो सकता । परन्तु यह हो सकता है कि 'जिस पुरुषने ये वाक्य लिखे हैं, वह पुरुष किसी अपूर्व मार्गका ज्ञाता है, और उससे इस बातका निराकरण होना मुख्यतासे संभव है, यह जानकर उसकी उस पुरुषके प्रति कुछ भी भावना उत्पन्न हो । कदाचित् ऐसा मान लें कि उसे उस पुरुषविषयक कुछ कुछ ज्ञान हो गया हो, और इस स्पष्ट लेखके पढ़नेसे उसे विशेष ज्ञान होकर, स्वयं अपने आप ही वह निश्चयपर पहुँच जाय, परन्तु वह निश्चय इस तरह नहीं होता। उसके यथार्थ स्थलका जान लेना उससे नहीं हो सकता, और उस कारणसे यदि जीवको विक्षेपकी उत्पत्ति हो कि यह बात किसी प्रकारसे जान ली जाय तो अच्छा है, तो उस प्रकारसे भी, जिस पुरुषने लिखा है उसके प्रति उसकी भावनाकी उत्पत्ति होना संभव है। ___तीसरा प्रकार इस तरह समझना चाहिये कि 'यदि सत्पुरुषकी वाणी स्पष्टरूपसे भी लिखी गई हो. तो भी जिसे उसका परमार्थ-सत्पुरुषका सत्संग-आज्ञांकितरूपसे नहीं हुआ, उसे समझाना कठिन होता है, इस प्रकार उस पढ़नेवालेको कभी भी स्पष्ट ज्ञान होना संभव है । यद्यपि हमने तो अति. स्पष्ट नहीं लिखा था, तो भी उन्हें इस प्रकार कुछ संभव मालूम होता है। परन्तु हम तो ऐसा समझते है कि यदि अति स्पष्ट लिखा हो तो भी प्रायः करके समझमें नहीं आता, अथवा विपरीत ही समझमें
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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