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________________ ३५९ पत्र ३८७] विविध पत्र आदि संग्रह-२६वाँ वर्ष आता है, और अन्तमें फिर उसे विक्षेप उत्पन्न होकर सन्मार्गमें भावना होना संभव होता है। इस पत्रमें हमने इच्छापूर्वक ही स्पष्ट लिखा था । सहज स्वभावसे भी न विचार किया हुआ प्रायः परमार्थके संबंधमें नहीं लिखा जाता, अथवा नहीं बोला जाता, जो अपरमार्थरूप परिणामको प्राप्त करे । (२) उस ज्ञानके विषयमें हमारा लिखनेका जो दूसरा आशय है, उसे यहाँ विशेषतासे लिखा है। (१) जिस ज्ञानी-पुरुषको स्पष्ट आत्माका किसी अपूर्व लक्षणसे, गुणसे और वेदनरूपसे अनुभव हुआ है, और जिसकी आत्मा तद्रूप हो गई है, उस ज्ञानी-पुरुषने यदि उस सुधारसका ज्ञान दिया हो तो उसका परिणाम परमार्थ-परमार्थस्वरूप है। (२) और जो पुरुष उस सुधारसको ही आत्मा जानता है, यदि उससे उस ज्ञानकी प्राप्ति हुई हो, तो वह व्यवहार-परमार्थस्वरूप है। (३) वह ज्ञान कदाचित् परमार्थ-परमार्थस्वरूप ज्ञानीने न दिया हो, परन्तु उस ज्ञानी-पुरुषने जीवको इस प्रकार उपदेश किया हो, जिससे वह सन्मार्गके सन्मुख आकर्षित हो, और यदि वह जीवको रुचिकर हुआ हो तो उसका ज्ञान परमार्थ-व्यवहारस्वरूप है। (४) तथा इसके सिवाय शास्त्र आदिका ज्ञाता जो सामान्यप्रकारसे मार्गानुसारी जैसी उपदेशकी बात करे, उसकी श्रद्धा करना, यह व्यवहार-व्यवहार स्वरूप है । इस तरह सुगमतासे समझनेके लिये ये चार प्रकार होते हैं। परमार्थ-परमार्थस्वरूप मोक्षका निकट उपाय है । इसके बाद परमार्थ-व्यवहारस्वरूप परंपरा संबंधसे मोक्षका उपाय है । व्यवहार-परमार्थस्वरूप बहुत कालमें किसी प्रकारसे भी मोक्षके साधनके कारणभूत होनेका उपाय है। व्यवहार-व्यवहारस्वरूपका फल आत्मप्रत्ययी होना संभव नहीं । इस बातको फिर किसी प्रसंगपर विशेषरूपसे लिखेंगे, इससे वह विशेषरूपसे समझमें आयेगी । परन्तु यदि इतने संक्षेपसे विशेष समझ न आवे तो व्याकुल नहीं होना । जिसे लक्षणसे, गुणसे, और वेदनसे आत्माका स्वरूप मालूम हुआ है, उसे ध्यानका यह एकतम उपाय है, जिससे आत्म-प्रदेशकी स्थिरता होती है, और परिणाम भी स्थिर होता है । जिसने लक्षणसे, गुणसे, और वेदनसे आत्माका स्वरूप नहीं जाना, ऐसे मुमुक्षुको यदि ज्ञानी-पुरुषका बताया हुआ ज्ञान हो तो उसे अनुक्रमसे लक्षण आदिका बोध सुगमतासे होता है। मुखरस और उसका उत्पत्तिक्षेत्र यह कोई अपूर्व-कारणरूप है, यह तुम निश्चयसे समझना । उसके बादका ज्ञानी-पुरुषका मार्ग जिसे क्लेशरूप न हो, इस प्रकार तुम्हें ज्ञानी-पुरुषका समागम हुआ है, इससे उस प्रकारका निश्चय रखनेके लिये कहा है । यदि उसके बादका मार्ग क्लेशरूप होता हो, और यदि उसमें किसीको अपूर्वकारणरूपसे निश्चय हुआ हो तो किसी प्रकारसे उस निश्चयको पीछे हटाना ही उपायरूप है, इस प्रकार हमारी आत्मामें लक्ष रहा करता है ।। कोई अज्ञानभावसे पवनकी स्थिरता करता है, परन्तु श्वासोच्छासका निरोध करना उसे कल्याणका हेतु नहीं होता । और कोई ज्ञानीकी आज्ञापूर्वक श्वासोच्छासका निरोध करता है, तो उसे उस
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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