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________________ पत्र ३८४, ३८५ ] विविध पत्र आदि संग्रह-२६वाँ वर्ष ३५७ प्रकारकी इस आत्माकी सहजानंद स्थिति चाहते हैं, उसी प्रकार सर्व आत्माओंकी चाहते हैं । जो कुछ इस आत्माके लिये चाहते है, वह सब, सब आत्माओंके लिये चाहते हैं । जिस प्रकार इस देहके प्रति भाव रखते हैं, उसी प्रकार सर्व देहोंके प्रति रखते हैं । जिस प्रकार सब देहोंके प्रति बर्ताव करनेका क्रम रखते हैं, उसी प्रकार इस देहके प्रति क्रम रहता है । इस देहमें विशेष-बुद्धि और दूसरी देहोंमें विषम-बुद्धि प्रायः करके कभी भी नहीं हो सकती । जिन स्त्रियों आदिका निजरूपसे संबंध गिना जाता है, उन स्त्रियों आदिके प्रति जो कुछ स्नेह आदि है अथवा समता है, उसी प्रकार प्रायः सबके लिये रहता है । केवल आत्मस्वरूपके कार्यमें प्रवृत्ति होनेसे जगत्के सब पदार्थोके प्रति जिस प्रकारकी उदासीनता रहती है, उसी प्रकार निजरूपसे गिने जानेवाले स्त्रियाँ आदि पदार्थोके लिये रहती है। प्रारब्धके योगसे स्त्रियों आदिके प्रति जो कोई उदय हो, उससे विशेष प्रवृत्ति प्रायः करके आत्मासे नहीं होती । कदाचित् करुणासे कुछ उस प्रकारकी प्रवृत्ति होती हो तो उस प्रकारकी प्रवृत्ति उसी क्षणमें उन उदय-प्रतिबद्ध आत्माओंके प्रति रहती है, अथवा समस्त जगत्के प्रति रहती है। किसीके प्रति कुछ विशेष नहीं करना, अथवा कुछ न्यून नहीं करना और यदि करना हो तो फिर उस प्रकार एक ही धाराकी प्रवृत्ति समस्त जगत्के प्रति करना-यह ज्ञान आत्माको बहुत समयसे दृढ़ है-निश्चयस्वरूप है। किसी स्थलमें न्यूनता, विशेषता, अथवा ऐसी कोई सम-विषम चेष्टापूर्वक प्रवृत्ति देखी जाती हो तो वह अवश्य ही आत्मस्थितिसे-आत्मबुद्धिसे नहीं होती, ऐसा मालूम होता है। पूर्वमें बाँधे हुए प्रारब्धके योगसे उस प्रकार कुछ उदयभावरूपसे होता हो तो उसमें भी समता ही है। किसीके प्रति न्यूनता या अधिकता आत्माको कुछ भी अच्छा नहीं लगता; वहाँ फिर दूसरी अवस्थाका विकल्प होना योग्य नहीं है। सबसे अभिन्न भावना है । जिसकी जितनी योग्यता है, उसके प्रति उतनी ही अभिन्न भावकी स्कृति होती है । कचित् करुणा-बुद्धिसे विशेष स्फूर्ति होती है । परन्तु विषमतासे अथवा विषय परिग्रह आदि कारण-प्रत्ययसे उसके प्रति प्रवृत्ति करनेका आत्मामें कोई संकल्प मालूम नहीं होता अविकल्परूप स्थिति है । विशेष क्या कहें ! हमारे कुछ हमारा नहीं है, अथवा दूसरेका नहीं है, अथवा दूसरा नहीं है । जैसा है वैसा ही है । जैसी आत्माकी स्थिति है वैसी ही है । सब प्रकारकी प्रवृत्ति निष्कपटभावसे उदयमें है। सम-विषमता नहीं है । सहजानंद स्थिति है। जहाँ वेसा हो वहाँ दूसरे पदार्थमें आसक्त बुद्धि योग्य नहीं होती नहीं । ३८५ बम्बई, आसोज सुदी १ भौम. १९४९ ___ "ज्ञानी पुरुषके प्रति अभिन्न बुद्धि हो, यह कल्याणका महान् निश्चय है"-इस प्रकार सब महात्मा पुरुषोंका अभिप्राय मालूम होता है। तुम तथा वे-जिनका देह हालमें अन्य वेदसे रहता हैदोनों ही जिस तरह ज्ञानी-पुरुषके प्रति विशेष निर्मलभावसे अभिन्नता हो, उस तरहकी प्रसंगोपात्त बात करो; वह योग्य है। और परस्पर अर्थात् उनके और तुम्हारे बीचमें जिससे निर्मल प्रेम रहे, वैसे प्रवृत्ति करनेमें बाधा नहीं है, परन्तु वह प्रेम जात्यंतर होना चाहिये । वह प्रेम इस तरहका न होना चाहिये जैसा बी-पुरुषका काम आदि कारणोंसे प्रेम होता है । परन्तु ज्ञानी-पुरुषके प्रति दोनोंका
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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