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६. स्मरण कला
आन्तरिक प्रकार सूक्ष्म है। इसलिए इन चर्म चक्षुषो से दिखाई नहीं पड़ता, परन्तु अनुभव के द्वारा जाना जा सकता है । यही है सामान्य व्यवहार मे मति, बुद्धि, चित्त आदि शब्दो द्वारा पहचाना जाने वाला मन ।
कितने ही तत्वज्ञ अनुभूति के इस पान्तरिक साधन को अन्त.. करण की सज्ञा देते है और उसके चार विभाग करते है जैसे कि मन, बुद्धि, चित्त और अहकार । उसकी पहचान वे इस रीति से देते हैं कि जिसके द्वारा योग्य और अयोग्य का अथवा खोटे और खरे का निर्णय होता है, वह बुद्धि कहलाती है।
जिसके द्वारा विविध प्रकार का चिन्तन होता है, वह चित्त कहलाता है । जिसके द्वारा इच्छा का प्रवर्तन होता है और परिणाम स्वरूप कार्य मे प्रवृत्ति होती है, वह अहकार कहलाता है ।
महर्षि पत जलि ने अनुभव के इस आन्तरिक साधन को चित्त सज्ञा दी है और उसकी मुख्य वृत्तिया पाच गिनाई है । वे इस प्रकार है-प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति । दूसरे विद्वानो ने उसका विस्तार दूसरी प्रकार से किया है, परन्तु यह तो वाणी व्यवहार अथवा परिभाषा का प्रश्न है । मूल विषय मन आन्तरिक अनुभव का साधन है। इसमे किसी प्रकार का मतभेद नहीं है । यह अनुभव जिसको होता है अथवा जिसके द्वारा यह शक्य बनता है, उसे प्रात्मा या जीवात्मा कहा जाता है।
प्रश्न-मन क्या-क्या कार्य करता है ?
उत्तर-मन के कार्य, मन के व्यापार असख्य होने से तत्वतः उनकी गणना हो सके, ऐसा सम्भव नही है। फिर भी व्यावहारिक सरलता के लिए अपनी समझ मे आ सके इसलिए मानस शास्त्रियो ने उन्हे तीन भागो मे विभक्त किया है वे निम्नलिखित है(१) बुद्धि प्रधान या विचार प्रधान व्यापार-उनमे पृथक-पृथक
सज्ञाये, प्रतीतियाँ, सस्कार, जिज्ञासा, तर्क, तुलना, अनुमान, कल्पना और स्मृति ग्रादि का समावेश होता है। वृत्ति प्रधान अथवा भाव प्रधान व्यापार- कोई भी सज्ञा या विचार ग्रहण करने के बाद मन मे आनन्द, शोक, उत्साह, धैर्य, सुख, दु ख आदि जो सस्कार जन्मते है अथवा जो भाव उठते है उनका इस प्रकार मे समावेश होता है ।