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स्मरण कला ७
(३) इच्छा या अभिलाषा प्रधान व्यापार-मन मे उत्कट ( एक
प्रकार की ) वृत्ति जागने के बाद, जो कार्य करने की इच्छा होती है, अभिलाषा उत्पन्न होती है और जो पूर्ण रूप से नाडी-तन्तुओ के माध्यम से शरीर की चेष्टा में व्याप्त हो जाती है। इन सब का समावेश इस विभाग मे होता है।
ये व्यापार ( भाव ) एक के बाद एक उत्पन्न होते रहते है अथवा एक साथ भी अनेक व्यापारों का प्रवर्तन एकदम हो जाता है, इससे इनकी समग्न क्रिया बहुत ही अटपटी हो जातो है । इन मनो व्यापारो का वेग कोई भी भौतिक फेरफार या व्यापार की अपेक्षा बहुत त्वरितगामी होता है। इसीलिए जब किसी भी वस्तु की शीघ्रता बतानी होती है तब उसकी समानता मानसिक वेग के साथ की जाती है। हम थोडी देर पहले किन्ही कल्पनायो मे विचरण कर रहे होते है कि एकाएक कितनी हो घटनाएँ (भाव ) स्मृति पटल पर उतर आती है। उनके साथ कुछ वृत्तिया भी उत्पन्न हो जाती है और वे फिर अनेक अभिलाषाओ को जन्म देती रहती है। यह सब इतनी शीघ्रता से होता है कि अति कुशाग्र बुद्धि के सिवा उसे समझना बहुत मुश्किल है ।
प्रश्न- मन दिखायी नही देता है तो उसके अस्तित्व का विश्वास कैसे हो?
उत्तर- जिस वस्तु को देख न सके परन्तु अनुभव कर सके, या समझ सके उसका अस्तित्व हो सकता है।
उदाहरण के तौर पर हवा को हम देख नहीं सकते पर स्पर्श के द्वारा अनुभव कर सकते है । इसलिए हवा का अस्तित्व है, ऐसा निश्चय किया जा सकता है। वैसे ही चैतन्य को तथा मन को देखा नहीं जा सकता परन्तु उसका निश्चय प्रतिकार और * पत्थर को तोडते, लकडी को चीरते, लोहे को काटते समय वे कोई
प्रतिकार नही कर सकते । मछली को जब पकडते है, तो वह ऊची नीची होती है । कुत्ते को मारा जाता है तो वह भू कने लगता है । कबूतर को पकड़ा जाता है तो वह सामने हो जाता है । मनुष्य को कोई भी नुकसान पहुंचाता है तो वह सुरक्षा का प्रयत्न करता है क्यो कि उनमे प्रतिकार शक्ति है । यह चैतन्य का लक्षण होने से पशु-प्राणियो मे चैतन्य है- यह समझा जा सकता है ।
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