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में भिन्नमाल, जाबालिपुर और चित्तौड़ तथा मालवा में उज्जैन, ग्वालियर और धारा आदि नगर जैन श्रमणों की प्रवृत्तियों के केन्द्र बन गये। __ ईसवी सन् की पहली शताब्दी से लेकर १८वीं शताब्दी तक प्रेम और शृंगार से पूर्ण प्राकृत काव्य की रचना हुई। यह साहित्य प्रायः अजैन विद्वानों द्वारा लिखा गया । मुक्तक काव्य प्राकृत साहित्य की विशेषता रही है, और संस्कृत काव्यशास्त्र के पंडित आनन्दवर्धन आदि विद्वानों ने तो मुक्तकों की रचना का प्रथम श्रेय संस्कृत को न देकर प्राकृत को ही दिया है। प्रेम और शृंगारप्रधान यह सरस रचना हाल की गाथासप्तशती से प्रारंभ होती है। आगे चलकर जब दक्षिण भारत साहित्यिक प्रवृत्तियों का केन्द्र बना तो केरलदेशवासी श्रीकंठ और रामपाणिवाद आदि मनीषियों ने अपनी रचनाओं से प्राकृत साहित्य के भंडार को संपन्न किया।
ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी से १८वीं शताब्दी तक संस्कृतनाटकों की रचना का काल रहा है। इस साहित्य में उच्च वर्ग के पुरुष, राजा की पटरानियाँ, मंत्रियों की कन्यायें आदि पात्र संस्कृत में, तथा स्त्रियाँ, विदूषक, धूर्त, विट और नौकर-चाकर आदि पात्र प्राकृत में संभाषण करते हैं। कर्पूरमञ्जरी आदि सट्टक-साहित्य में तो केवल प्राकृत का ही प्रयोग किया गया। इससे यही सिद्ध होता है कि दर्शकों के मनोरंजन के लिये नृत्य के अभिनय में प्राकृत का यथेष्ट उपयोग होता रहा।
संस्कृत की देखादेखी प्राकृत में भी व्याकरण, छन्द और कोषों की रचना होने लगी। ईसवी सन् की छठी शताब्दी से १८वीं शताब्दी तक इस साहित्य का निर्माण हुअा। मालूम होता है कि वररुचि से पहले भी प्राकृत व्याकरण लिखे गये; लेकिन आजकल वे उपलब्ध नहीं हैं । आनन्दवर्धन, धनंजय, भोजराज, रुय्यक, मम्मट, हेमचन्द्र, विश्वनाथ आदि काव्यशास्त्र के दिग्गज. पंडितों ने प्राकृत भाषाओं की चर्चा करने के साथ-साथ, अपने ग्रंथों में प्रतिपादित रस और अलंकार आदि को स्पष्ट करने के लिये, प्राकृत काव्यग्रंथों