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में से चुन चुनकर अनेक सरस उदाहरण प्रस्तुत किये। इससे प्राकृत काव्य-साहित्य की उत्कृष्टता का सहज ही अनुमान किया जा सकता है। इन सरस रचनाओं में पारलौकिक चिंताओं से मुक्त इहलौकिक जीवन की सरल और यथार्थवादी अनुभूतियों का सरस चित्रण किया गया है।
इसके अतिरिक्त अर्थशास्त्र, राजनीति, कामशास्त्र, निमित्तशास्त्र, अंगविद्या, ज्योतिष, रत्नपरीक्षा, संगीतशास्त्र आदि पर भी प्राकृत में महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखे गये । इनमें से अधिकांश लुप्त हो गये हैं ।
इस प्रकार लगभग २५०० वर्ष के इतिहास का लेखा-जोखा , यहाँ प्रस्तुत किया गया है । इस दीर्घकाल में प्राकृत भाषा को अनेक
अवस्थाओं से गुजरना पड़ा । प्राकृत के पैशाची, मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी और महाराष्ट्री आदि रूप सामने आये । जैसे प्राकृत संस्कृत की शैली आदि से प्रभावित हुई वैसे ही प्राकृत भी संस्कृत को बराबर प्रभावित करती रही। कालांतर में प्राकृत भाषा ने अपभ्रंश का रूप धारण किया और अपभ्रंश भाषायें व्रज, अवधी, मगही, भोजपुरी, मैथिली, राजस्थानी, पंजाबी आदि बोलियों के उद्भव में कारण हुई। इस दृष्टि से प्राकृत साहित्य का इतिहास भारतीय भाषाओं और साहित्य के अध्ययन में विशेष उपयोगी सिद्ध होगा।
सन् १९४५ में जब मैंने 'जैन आगमों में प्राचीन भारत का चित्रण' नामक महानिबंध ( थीसिस ) लिखकर समाप्त किया तभी से मेरी इच्छा थी कि प्राकृत साहित्य का इतिहास लिखा जाये । समय बीतता गया और मैं इधर-उधर की प्रवृत्तियों में जुटा रहा । इधर सन् १९५६ से ही प्राकृत जैन विद्यापीठ मुजफ्फरपुर [बिहार ] में मेरी नियुक्ति की बात चल रही थी। लगभग दो वर्ष बाद बिहार सरकार ने अपनी भूल का संशोधन कर अंततः अक्तूबर, १९५८ में प्राकृत जैन विद्यापीठ में मेरी नियुक्ति कर उदारता का परिचय दिया। यहाँ के शांत वातावरण में कार्य करने का यथेष्ट समय मिला । भगवान् महावीर की जन्मभूमि वैशाली की इस पवित्र भूमि का आकर्षण भी