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( २ ) की है और जिसके सत् संस्कृत आदि उत्तर विभेद हैं उसे संस्कृत समझना चाहिये ।" प्राचार्य पाणिनि ने वाङ्मय की भाषा को छन्दस् 'और लोकभाषा को भाषा कहा है, इससे भी प्राकृत की प्राचीनता
और लोकप्रियता सिद्ध होती है। वैदिक काल से जनसामान्य द्वारा बोली जाती हुई इन्हीं प्राकृत भाषाओं में बुद्ध और महावीर ने साधारण जनता के हितार्थ अपना प्रवचन सुनाया था।
बुद्ध और महावीर के पूर्व जनसामान्य की भाषा का क्या स्वरूप था, यह जानने के हमारे पास पर्याप्त साधन नहीं हैं। लेकिन इनके गुग से लेकर ईसवी सन् की १८ वीं शताब्दी तक प्राकृत साहित्य के विविध क्षेत्रों में जो धार्मिक आख्यान, चरित, स्तुति, स्तोत्र, लोककथा, काव्य, नाटक, सट्टक, प्रहसन, व्याकरण, छंद, कोष, तथा अर्थशास्त्र, संगीतशास्त्र, सामुद्रिकशास्त्र आदि शास्त्रीय साहित्य की रचना हुई वह भारतीय इतिहास और साहित्य की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी है।
संस्कृत सुशिक्षितों की भाषा थी जब कि जनसामान्य की भाषा होने से प्राकृत को बाल, वृद्ध, स्त्रियाँ और अनपढ़ सभी समझ सकते थे। ईसवी सन् के पूर्व पूवीं शताब्दी से लेकर ईसवी सन् की ५वीं शताब्दी तक जैन आगम-साहित्य का संकलन और संशोधन होता रहा। तत्पश्चात् ईसवी सन् की दूसरी शताब्दी से १६वीं शताब्दी तक इस साहित्य पर नियुक्ति, भाष्य, चूगी और टीकायें लिखकर इसे समृद्ध बनाया गया। अनेक लौकिक और धार्मिक कथाओं आदि का इस व्याख्या-साहित्य में समावेश हुआ।
ईसवी सन् की चौथी शताब्दी से १७वीं शताब्दी तक कथासाहित्य संबंधी अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना हुई। ११वी १२वीं शताब्दी का काल तो विशेष रूप से इस साहित्य की उन्नति का काल रहा । इस समय गुजरात में चालुक्य, मालवा में परमार तथा राजस्थान में गुहिलोत और चाहमान राजाओं का राज्य था और इन राजाओं का जैनधर्म के प्रति विशेष अनुराग था । फल यह हुआ कि गुजरात में अणहिलपुर पाटण, खंभात, और भडौंच, राजस्थान