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उपसंहार
૬૮૭ ऐतिहासिक कथानकों तथा धार्मिक और लौकिक कथाओं का भंडार बन गया। इससे केवल व्याख्यात्मक होने पर भी यह साहित्य जैनधर्म और जैन संस्कृति के अभ्यासियों के लिये एक अत्यंत आवश्यक स्वतंत्र साहित्य ही हो गया। इस साहित्य का निर्माण ईसवी सन् की लगभग दूसरी शताब्दी से आरंभ हुआ
और ईसा की १६वीं १७वीं शताब्दी तक चलता रहा। जैसे यह साहित्य आगमों को आधार मान कर लिखा गया, वैसे ही इस साहित्य के आधार से उत्तरवर्ती प्राकृत साहित्य की रचना होती रही।
दिगम्बर आचार्यों ने श्वेताम्बरसम्मत आगमों को प्रमाण रूप से स्वीकार नहीं किया। श्वेतांबर परंपरा के अनुसार केवल दृष्टिवाद नाम का बारहवाँ अंग ही उच्छिन्न हुआ था, जबकि दिगम्बरों की मान्यता के अनुसार समस्त आगम नष्ट हो गये थे और केवल दृष्टिवाद का ही कुछ अंश बाकी बचा था। इस अंश को लेकर दिगम्बर सम्प्रदाय में षटखंडागम की रचना की गई और इस पर अनेक आचार्यों ने टीका-टिप्पणियाँ लिखीं। २३ भागों में प्रकाशित इस बृहदाकार विशाल ग्रंथ में खास तौर से कर्मसिद्धांत की चर्चा ही प्रधान है जिससे प्रतिपाद्य विषय अत्यन्त जटिल और नीरस हो गया है। श्वेतांबरीय आगमों की भाँति निर्ग्रन्थ-प्रवचनसंबंधी विवधि विषयों की विशद और व्यापक चर्चा यहाँ नहीं मिलती। दिगंबर साहित्य में भगवतीआराधना और मूलाचार बहुत महत्त्व के हैं। इनकी विषयवस्तु श्वेतांबरों के नियुक्ति और भाष्य-साहित्य के साथ बहुत मिलतीजुलती है। श्वेताम्बर और दिगंबरों के प्राचीन इतिहास के क्रमिक विकास को समझने के लिये दोनों के प्राचीन साहित्यों का तुलनात्मक अध्ययन अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा । कुन्दकुन्दाचार्य का दिगम्बर सम्प्रदाय में वही स्थान है जो श्वेतांबर सम्प्रदाय में भद्रबाहु का | इनके ग्रंथों के अध्ययन से जान पड़ता है कि उन्होंने वेदान्त से मिलती-जुलती अध्यात्म की एक विशिष्ट