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प्राकृत साहित्य का इतिहास
शैली को जन्म दिया था, जो शैली जैन परंपरा में अन्यत्र देखने में नहीं आती ।
दिगंबर आचार्यों की भाँति श्वेतांबर विद्वानों ने भी आगमो तरकालीन जैनधर्मसंबंधी विपुल साहित्य का सर्जन किया । इसमें आचार-विचार, कर्मसिद्धांत, दर्शन, खंडन-मंडन आदि सभी विषयों का समावेश किया गया। प्रकरण - प्रन्थों की रचना इस काल की विशेषता है । सरलता से कंठस्थ किये जानेवाले इस प्रकार के लघुग्रंथ की सैकड़ों की संख्या में रचना की गई। विधि-विधान और तीर्थसंबंधी प्राकृतग्रन्थों की रचना भी इस काल में हुई । पट्टावलियों में आचार्यों और गुरुओं की परंपरा संग्रहीत की गई तथा प्रबंध ग्रंथों में ऐतिहासिक प्रबंधों की रचना हुई । इस प्रकार प्राकृत - साहित्य केवल महावीर के उपदेशों तक ही सीमित न रहा, बल्कि वह उत्तरोत्तर व्यापक और समुन्नत होता गया ।
प्राकृत जैन कथा-साहित्य जैन विद्वानों की एक विशिष्ट देन है । उन्होंने धार्मिक और लौकिक आख्यानों की रचना कर प्राकृत-साहित्य के भंडार को समृद्ध किया । कथा, वार्ता, आख्यान, उपमा, दृष्टान्त, संवाद, सुभाषित, प्रश्नोत्तर, समस्यापूर्ति और प्रहेलिका आदि द्वारा इन रचनाओं को सरस बनाया गया । संस्कृत साहित्य में प्रायः राजा, योद्धा और धनी मानी व्यक्तियों केही जीवन का चित्रण किया जाता था, लेकिन इस साहित्य में जनसामान्य के चित्रण को विशेष स्थान प्राप्त हुआ । जैन कथाकारों की रचनाओं में यद्यपि सामान्यतया धर्मदेशना की ही मुख्यता है, रीति-प्रधान शृंगारिक साहित्य की रचना उन्होंने नहीं की, फिर भी पादलिप्त, हरिभद्र, उद्योतनसूरि, नेमिचन्द्र, गुणचन्द्र, मलधारि हेमचन्द्र, लक्ष्मणगणि, देवेन्द्रसूरि आदि कथा-लेखकों ने इस कमी को बहुत कुछ पूरा किया। उधर ईसवी सन् की ११वीं - १२वीं शताब्दी से लेकर १४वीं - १५वी शताब्दी तक गुजरात, राजस्थान और मालवा में जैनधर्म का