________________
६८६ प्राकृत साहित्य का इतिहास महावीर के निर्वाण के पश्चात उनके गणधरों ने निर्गन्धाचन का संकलन किया और यह संकलन आगम के नाम से कहा गया । अर्धमागधी में संकलित यह आगम-साहित्य अनेक दृष्टियों से अत्यन्त महत्त्व का है। जब भारत के उत्तर, पश्चिमी और पूर्व के कुछ प्रदेशों में ब्राह्मण धर्म का प्रचार हो चुका था, उस समय जैन श्रमणों ने मगध और उसके आसपास के क्षेत्रों में ग्रामानुग्राम घूम-घूम कर कितनी तत्परता से जैनसंघ की स्थापना की, इसकी कुछ कल्पना इस विशाल साहित्य के अध्ययन से हो सकती है। इस साहित्य में जैन उपासकों और मुनियों के आचार-विचार, नियम, व्रत, सिद्धांत, परमत-खंडन, स्वमतस्थापन आदि अनेक विषयों का विस्तृत विवेचन है। इन विपयों का यथासंभव विविध आख्यान, चरित, उपमा, रूपक, दृष्टांत आदि द्वारा सरल, और मार्मिक शैली में प्रतिपादन किया गया है। वस्तुतः यह साहित्य जैन संस्कृति और इतिहास का आधारस्तंभ है, और इसके बिना जैनधर्म के वास्तविक रूप का सांगोपांग ज्ञान नहीं हो सकता। आगे चलकर भिन्न-भिन्न परिस्थितियों के अनुसार जैनधर्म के सिद्धांतों में संशोधनपरिवर्धन होते रहे, लेकिन आगम-साहित्य में वर्णित जैनधर्म के मूलरूप में विशेष अंतर नहीं आया। स्वयं भगवान महावीर के उपदेशों का संग्रह होने से आगम-साहित्य का प्राचीनतम समय ईसवी सन के पूर्व पाँचवीं शताब्दी, तथा वलभी में आगमों की अन्तिम वाचना होने से इसका अर्वाचीनतम समय ईसवी सन् की पाँचवीं शताब्दी मानना होगा। ___ कालक्रम से आगम-साहित्य पुराना होता गया और शनैः शनैः इस साहित्य में उल्लिखित अनेक परंपरायें विस्मृत होती चली गई। ऐसी हालत में आगमों के विषय को स्पष्ट करने के लिये नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी, टीका आदि अनेक व्याख्याओं द्वारा इस साहित्य को पुष्पित और पल्लवित किया गया । फल यह हुआ कि आगमों का व्याख्या-साहित्य प्राचीनकाल से चली आनेवाली अनेक अनुश्रुतियों, परंपराओं, ऐतिहासिक और अर्ध