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५३८ प्राकृत साहित्य का इतिहास कृति १६ परिच्छेदों में विभक्त है, प्रत्येक परिच्छेद में २५० पद्य हैं। यह एक प्रेम आख्यान है जो काव्यगुण से संपन्न है। यहाँ शब्दालंकारों के साथ उपमालंकारों का सुन्दर प्रयोग हुआ है। उपमायें बहुत सुन्दर बन पड़ी हैं। रसों की विविधता में कवि ने बड़ा कौशल दिखाया है। अपभ्रंश और ग्राम्यभाषा के शब्दों का जहाँ-तहाँ प्रयोग दिखाई देता है।
धनदेव सेठ एक दिव्य मणि की सहायता से चित्रवेग नामक विद्याधर को नागपाश से छुड़ाता है। दीर्घकालीन विरह के पश्चात् चित्रवेग का विवाह उसकी प्रियतमा के साथ होता है। वह सुरसुंदरी और अपने प्रेम तथा विरह-मिलन की कथा सुनाता है। सुरसुंदरी का मकरकेतु के साथ विवाह हो जाता है । अन्त में दोनों दीक्षा ले लेते हैं। मूलकथा के साथ अंतर्कथायें इतनी अधिक गुंफित हैं कि पढ़ते हुए मूलकथा एक तरफ रह जाती है। कथा की नायिका सुरसुंदरी का नाम पहली बार ग्यारहवें परिच्छेद में आता है। इस ग्रन्थ में भीषण अटवी, भीलों का आक्रमण, वर्षाकाल, वसन्त ऋतु, मदन महोत्सव, सूर्योदय, सूर्यास्त, सुतजन्म महोत्सव, विवाह, युद्ध, विरह, महिलाओं का स्वभाव, समुद्रयात्रा तथा जैन साधुओं का नगरी में आगमन, उनका उपदेश, जैनधर्म के तत्त्व आदि का सरस वर्णन है । विरहावस्था के कारण बिस्तरे पर करवट बदलते हुए और दीर्घ निश्वास छोड़कर संतप्त हुए पुरुष की उपमा भाड़ में भूने जाते हुए चने के साथ दी है। कोई प्रियतमा दीर्घकाल तक अपने प्रियतम के मुख को टकटकी लगाकर देखती हुई भी नहीं अघाती
एयस्स क्यण-पंकय पलोयणं मोत्तु मह इमा दिट्ठी। पंक-निवुडा दुब्बल गाइव्व न सक्कए गंतुं॥
-जिस प्रकार कीचड़ में फँसी हुई कोई दुर्बल गाय अपने स्थान से हटने के लिये असमर्थ होती है, उसी प्रकार इसके मुख-कमल पर गड़ी हुई मेरी दृष्टि वापिस नहीं लौटती ।
१. भट्टियचणगो वि य सयणीये कीस तडफडसि । (३, १४८)।