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सुरसुंदरीचरिय
ક૨૭ के समय जंबूकुमार अपनी आठों पत्नियों के साथ सुख से बैठे हुए क्रीड़ा कर रहे थे, उस समय प्रभव नाम के चोर सेनापति ने अपने भटों के साथ उनके घर में प्रवेश किया। जम्बूस्वामी प्रभव को देखकर किंचिन्मात्र भी भयभीत नहीं हुए। वे उसे उपदेश देने लगे । जंबूकुमार ने प्रभव को मधुबिन्दु का दृष्टान्त सुनाया और कुबेरदत्ता नाम के आख्यान का वर्णन किया । तत्पश्चात् जंबूकुमार ने अपनी आठों पत्नियों को हाथी, बन्दर, गीदड़, धमक, वृद्धा, ग्राममूर्ख, पक्षी, भट्टदुहिता आदि के वैराग्यवर्धक अनेक कथानक सुनाये | अंत में उन्होंने श्रमणदीक्षा ग्रहण की और केवलज्ञान प्राप्त कर सिद्धि पाई। प्रभव ने भी जंबूकुमार का उपदेश श्रवण कर मुनि दीक्षा ली। जंबूस्वामी के निर्वाण के पञ्चात् प्रभव को उनका पद मिला, और उन्होंने भी सिद्धगति पाई।
सुरसुंदरीचरिय कहाणयकोस के कर्ता जिनेश्वरसूरि के शिष्य साधु धनेश्वर ने सुबोध प्राकृत गाथाओं में वि० सं० १०३५ (ईसवी सन् १०३८) में चड्डावल्लि नामक स्थान में इस ग्रन्थ की रचना की है। यह
१. इसके अतिरिक्त सकलचन्द्र के शिष्य भुवनकीर्ति (विक्रम संवत् की १६वीं शताब्दी) और पद्मसुन्दर ने प्राकृत में जंबूस्वामिचरित की रचना की। विजयदयासूरि के आदेश से जिनविजय आचार्य ने वि० सं० १७८५ (सन् १७२८) में जंबूस्वामिचरित लिखा (जैन साहित्यवर्धक सभा, भावनगर से वि० सं० २००४ में प्रकाशित)। संस्कृत और अपभ्रंश में भी श्वेताम्बर और दिगम्बर विद्वानों ने जंवृस्वामिचरितों की रचना की। राजमल्ल का संस्कृत में लिखा हुआ जंबूस्वामिचरित जगदीशचन्द्र जैन द्वारा संपादित होकर मणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रंथमाला में वि० सं० १९९३ में प्रकाशित हुआ है।
२. जैन विविध साहित्यशास्त्रमाला में मुनिराज श्रीराजविजय जी द्वारा संपादित और सन् १९१६ में यनारस से प्रकाशित ।