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सुरसुंदरीचरिय
५३९ राजा के विरुद्ध कार्य करने वाले व्यक्ति को लक्ष्य करके कहा है
काउं रायविरुद्धं नासंतो कत्थ छुट्टसे पाव |
सूयार-साल-वडिओ ससउव्व विणस्ससे इण्डिं। -हे पापी । राजा के विरुद्ध कार्य करने से भाग कर तू कहाँ जायेगा ? रसोइये की पाकशाला में आया हुआ खरगोश भला कहीं बचकर जा सकता है ? यौवनप्राप्त कन्या के लिये वर की आवश्यकता बताई है
धूया जोव्वणपत्ता वररहिया कुल-हरम्मि वसमाणा। तं किंपि कुणइ कजं लहइ कुलं मइलणं जेण ॥
-युवावस्था को प्राप्त वररहित कुलीन घर में रहनेवाली कन्या जो कुछ कार्य करती है उससे कुल में कलंक ही लगता है। राग दुःख की उत्पत्ति का कारण है
तावश्चिय परमसुहं जाव न रागो मणम्मि उच्छरइ । हंदि ! सरागम्मि मणे दुक्खसहस्साई पविसंति ॥
-जब तक मन में राग का उद्य नहीं होता तब तक ही सुख है । रागसहित चित्तवाले मन में सहस्रों दुःखों का प्रवेश होता है। पुत्रवती नारी की प्रशंसा की गई है
धन्नाउ ताउ नारीओ इत्थ जाओ अहोनिसिं नाह | निययं थणं धयंत थणंधयं हंदि ! पिच्छंति ॥
-वे नारियाँ धन्य हैं जो नित्य स्तनपान करते हुए अपने बालक को देखती हैं।
स्त्रियों के स्वभाव का वर्णन करते हुए बताया गया है कि चंचल चित्तवाली महिलाओं में कापुरुष जन ही आसक्तिभाव रखते हैं, सजन नहीं। अपने मन में वे और कुछ सोचती हैं,
और किसी को देखती हैं तथा किसी और के साथ संबंध जोड़ती हैं। चंचल चित्तवाली ऐसी महिलाओं को कौन प्रिय हो सकता है ? त्रियाँ सत्य, दया, और पवित्रता से विहीन होती हैं, अकार्य