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उपदेशमालाप्रकरण भावना के अन्तर्गत सम्यक्त्वशुद्धि आदि १४ द्वारों का प्ररूपण है। सम्यक्त्वशुद्धिद्वार में अमरदत्त की भार्या और विक्रम राजा आदि के दृष्टान्त हैं। चरणद्वार में बारह व्रतों का प्रतिपादन है। अठारह प्रकार के पुरुष, बीस प्रकार की स्त्री
और दस प्रकार के नपुंसकों को दीक्षा का निषेध है। दया में धर्मरुचि, सत्य में कालकाचार्य, अदत्तादान में नागदत्त, ब्रह्मचर्य में सुदर्शन और स्थूलभद्र, अपरिग्रह में कीर्तिचन्द्र और समरविजय आदि के कथानक दिये हैं। रात्रिभोजन-त्याग के समर्थन में ब्राह्मणों की स्मृति से प्रमाण दिये गये हैं। 'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' (पुत्ररहित शुभ गति को प्राप्त नहीं करता) के संबंध में कहा है
जायमानो हरेद्भार्या वर्धमानो हरेद्धनं । प्रियमाणो हरेत् प्राणान्, नास्ति पुत्रसमो रिपुः ।
-पुत्र पैदा होते ही भार्या का हरण कर लेता है, बड़ा होकर धन का हरण करता है, और मरते समय प्राणों को हरता है, इसलिये पुत्र के समान और कोई शत्रु नहीं है। _ ब्राह्मणों के जातिवाद का खंडन करते हुए अचल आदि ऋषि-मुनियों की उत्पत्ति हस्तिनी, उलूकी, अगस्ति के पुष्प, कलश, तित्तिर, केवटिनी और शूद्रिका आदि से बताई है। रत्नों के समान महाव्रतों की रक्षा करने का विधान है। दरिद्र के दृष्टान्त में जाति, रूप और विद्या की तुलना में धनार्जन की ही मुख्यता बताई है। पाँच समिति और तीन गुप्तियों को उदाहरणपूर्वक समझाया गया है। सूत्राध्ययन, विहार, परीषहसहन, मनःस्थैर्य, भावस्तव आदि की व्याख्या की गई है। अपवादमागे के उदाहरण में कालकाचार्य की कथा दी है। ___ इन्द्रियजय के उपदेश में पाँचों इन्द्रियों के अलग-अलग उदाहरण दिये हैं। चक्षु इन्द्रिय के उदाहरण में लक्षणशास्त्र के अनुसार स्त्री-पुरुष के लक्षण दिये हैं। कषायनिग्रहद्वार में कषायों का स्वरूप बताते हुए उनके उदाहरण दिये हैं। लोभ की मुख्यता बताते हुए कहा है