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प्राकृत साहित्य का इतिहास पियविरहाओ न दुहं दारिदाओ परं दुई नस्थि । लोहसमो न कसाओ मरणसमा आवई नत्थि ॥
-प्रिय के विरह से बढ़कर कोई दुख नहीं, दारिद्रय से बढ़कर कोई क्लेश नहीं, लोभ के समान कोई कपाय नहीं, और मरण के समान कोई आपत्ति नहीं।
कुलवासलक्षणद्वार में गुरु के गुणों का प्रतिपादन करते हुए शिष्य के लिये विनयवान होना आवश्यक बताया है। शिष्य को गुरु के मन को समझनेवाला, दक्ष और शांत स्वभावी होना चाहिये। जैसे कुलवधु अपने पति के आक्रष्ट होने पर भी उसे नहीं छोड़ती, वैसे ही गुरु के आक्रुष्ट होने पर भी शिष्य को गुरु का त्याग नहीं करना चाहिये । उसे सदा गुरु की आज्ञानुसार ही उठना-बैठना और व्यवहार-बर्ताव करना चाहिये । दोषविकटनालक्षणद्वार में आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत के भेद से पाँच प्रकार का व्यवहार बताया गया है। आर्द्रककुमार का यहाँ उदाहरण दिया है। विरागलक्षणद्वार में लक्ष्मी को कुलटा नारी की उपमा दी है। विनयलक्षणप्रतिद्वार में विनय का स्वरूप प्रतिपादित किया है। स्वाध्यायरतिलक्षणद्वार में वैयावृत्य, स्वाध्याय और नमस्कार का माहात्म्य बताया है। अनायतनत्यागलक्षणद्वार में महिला-संसर्गत्याग, चैत्यद्रव्य के भक्षण में दोष, कुसंग का फल आदि का प्रतिपादन हैं। परपरिवादनिर्वृतिलक्षण में परदोषकथा को अर्हित कहा है। धर्मस्थिरतालक्षणद्वार में जिनपूजा आदि का महत्त्व बताया है। परिज्ञानलक्षणद्वार में आराधना की विधि का प्रतिपादन है।
संवेगरंगसाला इसके कर्ता जिनचन्द्रसूरि हैं,' उन्होंने वि० सं० ११२५ (सन् ११६८ ) में इस कथात्मक ग्रंथ की रचना की | नवांग
१. जिनदत्तसूरि प्राचीन पुस्तकोद्धार फंड द्वारा सन् १९२४ में निर्णयसागर, बंबई में प्रकाशित ।