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प्राकृत साहित्य का इतिहास को एक पिशाच के रूप में चित्रित किया है। इसीप्रकार मोह का राजा, राग का केशरी, मदन का मांडलिक राजा और विपर्यास का सामन्त के रूप में उल्लेख है | अल्प आधार को नाशका कारण बताया है।
विशेष बुद्धिशाली न होने पर पढ़ने में उद्यम करते ही रहना चाहिये
मेहा होज न होज व लोए जीवाण कम्मवसगाणं । उज्जोओ पुण तहविहु नाणंमि सया न मोत्तव्यो।
-कर्म के वशीभूत जीवों के मेधा हो या न हो, ज्ञान प्राप्ति के लिये सदा उद्यम करते रहना चाहिये । सूत्रों की प्रधानता के संबंध में कहा हैसुई जह ससुत्ता न नस्सई कयवरंमि पडिया वि। तह जीवोऽवि ससुत्तो न नस्सइ गओऽवि संसारे॥
-जैसे धागे वाली सुई कूड़े-कचरे में गिरने पर भी खोई नहीं जाती, उसी प्रकार संसार में भ्रमण करता हुआ जीव भी सूत्रों का अध्येता होने के कारण नष्ट नहीं होता।
सुपात्रदान का फल अनेक दृष्टांतों द्वारा प्रतिपादित किया है। अमरसेन और वरसेन के चरित में पादुका पर चढ़कर आकाश में गमन करना तथा लाठी सुंघाकर रासभी बना देने आदि का उल्लेख है। धनसार नामक श्रेष्ठी करोड़ों रुपये की धनसम्पत्ति का मालिक होते हुए भी कणभर भी वस्तु किसी को दान नहीं करता था।
शीलद्वार में शील का माहात्म्य बताने के लिये रतिसुंदरी आदि के दृष्टान्त दिये हैं। सीता का चरित दिया गया है। जिनसेन के चरित में ताम्रलिप्ति नगर में योगसिद्धि नामक मठ था, इसमें कोई परिव्राजिका रहती थी।
तपद्वार में वसुदेव, दृढ़प्रहारी, विष्णुकुमार और स्कंदक आदि के चरित हैं।