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उपदेशमालाप्रकरण इसमें ५८५ मूल गाथायें हैं जिन पर लेखक ने स्वोपज्ञ टीका लिखी है। साधु सोम ने भी इस पर टीका की रचना की है । लेखक के कथानुसार जिनवचनरूपी कानन से सुंदर पुष्पों को चुनकर इस श्रेष्ठ पुष्पमाला की रचना की गई है। इसमें श्रुत के अनुसार विविध दृष्टान्तों द्वारा कर्मों के क्षयं का उपाय प्रतिपादित किया गया है। यह ग्रंथ दान, शील, तप और भावना इन चार मुख्य भागों में विभक्त है। भावना के सम्यक्त्वशुद्धि, चरणविशुद्धि, इन्द्रियजय, कषायनिग्रह आदि अनेक विभाग हैं। इस कृति में जैन तत्वोपदेश संबंधी कितनी ही महत्वपूर्ण धार्मिक और लौकिक कथायें विशद शैली में प्रथित हैं।
‘सर्वप्रथम मनुष्य की दुर्लभता के दृष्टान्त दिये गये हैं। धर्म मोक्षसुख का मूल है। अहिंसा सब धर्मों में प्रधान है
किं सुरगिरिणो गरुयं ? जलनिहिणो किं व होज गंभीरं ? किं गयणा उ विसालं ? को व अहिंसासमो धम्मो ?
-सुरगिरि के समान कौन बड़ा है ? समुद्र के समान कौन गंभीर है ? आकाश के समान कौन विशाल है ? और अहिंसा के समान कौन सा धर्म है ?
वज्रायुध के दृष्टान्त से पता लगता है कि ब्राह्मण और उसकी दासी से उत्पन्न हुए पुत्र को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं था। महाभुजग की विषवेदना को दूर करने के लिये मंत्र-तंत्र के स्थान पर अहिंसा, सत्य आदि के पालन को ही महाक्रिया बताया है । शरद् और ग्रीष्म ऋतुओं का वर्णन है । हिंसाजन्य दुख को स्पष्ट करने के लिये मृगापुत्र का दृष्टान्त दिया है। ज्ञानदान में पुरन्दर का उदाहरण है। विद्यासिद्धि के लिये एक मास के उपवासपूर्वक कृष्णचतुर्दशी के दिन श्मशान में रहने का विधान है । इस विधि का पालन करते हुए दो मास तक किसी स्त्री का मुँह देखना तक निपिद्ध है। ठग विद्या का यहाँ उल्लेख है। क्रोध को दवाग्नि, मान को गिरि, माया को भुजंगी और लोभ