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विधिविधान
रचना है संबोधप्रकरण; इसका दूसरा नाम तत्वप्रकाशक भी है। इसमें देवस्वरूप तथा गुरुअधिकार में कुगुरु, गुर्वाभास, पाश्वस्थ आदि के स्वरूप का प्रतिपादन है। गुरुतत्वविनिश्चय के रचयिता उपाध्याय यशोविजय हैं, इस पर उनकी स्वोपज्ञ वृत्ति भी है। इसमें चार उल्लास हैं जिनमें गुरु का माहात्म्य, आगम आदि पाँच व्यवहारों का निरूपण, पार्श्वस्थ आदि कुगुरुओं का विस्तृत वर्णन, दूसरे गच्छ में जाने की परिपाटी का विवेचन, साधुसंघ के नियम, सुगुरु का स्वरूप तथा पुलक आदि पाँच निर्ग्रन्थों का निरूपण किया गया है। यतिलक्षणसमुच्चय उपाध्याय यशोविजय जी की दूसरी रचना है। इसमें २२७ गाथाओं में मुनियों के लक्षण बताये गये हैं। (ज) विधिविधान (क्रियाकाण्ड)
विधिमार्गप्रपा विधिमार्गप्रपा के रचयिता जिनप्रभसूरि एक असाधारण प्रभावशाली जैन आचार्य थे जिन्होंने विक्रम संवत् १३६३ ( ईसवी सन् १३०६) में अयोध्या में इस ग्रन्थ को लिखकर समाप्त किया था। इस ग्रन्थ में साधु और श्रावकों की नित्य
और नैमित्तिक क्रियाओं की विधि का वर्णन है । क्रियाकांडप्रधान इस ग्रन्थ में ४१ द्वार हैं। इनमें सम्यक्त्व-व्रत आरोपणविधि, परिग्रहपरिमाणविधि, सामायिक आरोपणविधि और मालारोपणविधि, आदि का वर्णन है। मालारोपणविधि में मानदेवसूरिरचित ५४ गाथाओं का उवहाणविहि नामक प्राकृत का प्रकरण उद्धृत किया है जो महानिशीथ के आधार से रचा गया है ।
१. आत्मानन्द जैन सभा, भावनगर की ओर से सन् १९२५ में प्रकाशित ।
२. जैनधर्मप्रसारक सभा, भावनगर से वि० सं० १९६५ में प्रकाशित ।
३. मुनि जिनविजय जी द्वारा सम्पादित निर्णयसागर प्रेस, बम्बई से सन् १९४१ में प्रकाशित ।