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घटखंडागम का परिचय २८५ जीवों की अपेक्षा अन्तर, (१०) भागाभागानुगम, और (११) अल्पबहुत्वानुगम | इन ग्यारह अनुयोगों के पूर्व प्रास्ताविकरूप से बन्धकों के सत्व की प्ररूपणा की गई है, और अन्त में चूलिका रूप में 'महादण्डक' दिया है । दृष्टिवाद के चतुर्थ भेद पूर्व के अन्तर्गत अग्रायणी पूर्व की पञ्चम वस्तु चयनलब्धि के छठे पाहुडबन्धन के बन्धक नामक अधिकार से इस खण्ड का उद्धार किया गया है। ___ नौवीं पुस्तक में तीसरा खण्ड आता है जिसका नाम बंधस्वामित्व-विचय है। इसका अर्थ है बन्ध के स्वामित्व का विचार | यहाँ इस बात का विवेचन है कि कौन सा कर्मबन्ध किस गुणस्थान व मार्गणा में सम्भव है। इस खण्ड में ३२४ सूत्र हैं ; प्रथम ४२ सूत्रों में केवल गुणस्थान के अनुसार प्ररूपण किया गया है, शेष सूत्रों में मार्गणा के अनुसार गुणस्थानों का प्ररूपण है।
नौवीं पुस्तक में षट्खण्डागम का चतुर्थ खण्ड आता है जिसका नाम वेदनाखण्ड है। इसमें कृतिअनुयोगद्वार का स्पष्टीकरण किया है। इस खण्ड में अप्रायणीय पूर्व की पाँचवीं वस्तु चयनलब्धि के चतुर्थ प्रामृत' कर्मप्रकृति के चौबीस अनुयोगद्वारों में से प्रथम दो-कृति और वेदना-अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा है, जिसमें वेदना अधिकार अधिक विस्तार से प्रतिपादित किया गया है, इसलिये इस सम्पूर्ण खण्ड का नाम वेदना है। इस खण्ड के प्रारम्भ में फिर से मंगलाचरण किया है जो ४४ सूत्रों में है । यही मंगल धरसेनाचार्य के जोणिपाहुड में गणधरवलयमंत्र के रूप में पाया जाता है। इन सूत्रों में जिन, अवधिजिन, परमावधिजिन, सर्वावधिजिन, अनंतावधिजिन, कोष्टबुद्धिजिन, बीजबुद्धिजिन, पदानुसारीजिन, संभिन्नश्रोताजिन, ऋजुमतिजिन, विपुलमतिजिन, दशपूर्वीजिन, चतुर्दशपूर्वीजिन,अष्टांगमहानिमित्तकुशलजिन, विक्रियाप्राप्तजिन, विद्याधर, चारण,प्रज्ञाश्रमण,आकाशगामी, आशीविष, दृष्टिविष, उपतप, दीप्ततप, तप्ततप, महातप,