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२८४ प्राकृत साहित्य का इतिहास है। द्वितीय महादंडक चूलिका में प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख देव और प्रथमादि छः पृथिवियों के नारकी जीवों के योग्य प्रकृतियाँ गिनाई गई हैं। तृतीय महादंडक चूलिका में सातवीं पृथिवी के नारकी जीवों के सम्यक्त्वाभिमुख होने पर बंध योग्य प्रकृतियों का निर्देश है। उत्कृष्टस्थितिचूलिका में कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति और जघन्यस्थितिचूलिका में कर्मों की जघन्य स्थिति का विवेचन है । सम्यक्त्वोत्पत्तिचूलिका बहुत महत्वपूर्ण है । सूत्रकार ने यह विषय दृष्टिवाद के पाँच अंगों में से द्वितीय अंग सूत्र पर से संग्रह किया है । धवलाकार ने कषायप्राभृत के चूर्णीसूत्रों के आधार से विषय का विवेचन किया है । गति-आगतिचूलिका का विषय सूत्रकार ने दृष्टिवाद के पाँच अंगों में प्रथम अंग परिकर्म के चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि पाँच भेदों के अन्तिम भेद विआहपण्णत्ति से लिया है।
इस प्रकार छह खण्डों में से प्रथम खण्ड जीवस्थान की समाप्ति हो जाती है।
इसके पश्चात् आठवीं पुस्तक में षट्खण्डागम का द्वितीय खण्ड आरम्भ होता है जिसका नाम खुद्दाबन्ध (क्षुद्रकबन्ध) है । इस खण्ड में ग्यारह मुख्य तथा प्रास्ताविक व चूलिका इस तरह सब मिलाकर तेरह अधिकार हैं जिनमें कुल मिलाकर १५८६ सूत्र हैं। इन अनुयोगों का विषय प्रायः वही है जो जीवस्थान खण्ड में आ चुका है। अन्तर यही है कि यहाँ मार्गणास्थानों के भीतर गुणस्थानों की अपेक्षा रखकर प्ररूपण किया गया है । यहाँ जीवों की प्ररूपणा स्वामित्व आदि ग्यारह अनुयोगों द्वारा गुणस्थान विशेषण को छोड़कर मार्गणास्थानों में की गई है। इन ग्यारह अनुयोगों के नाम हैं-(१) एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व, (२) एक जीव की अपेक्षा काल, (३) एक जीव की अपेक्षा अन्तर, (४) नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, (५) द्रव्यप्रमाणानुगम, (६) क्षेत्रानुगम, (७) स्पर्शनानुगम, (८) नाना जीवों की अपेक्षा काल, (६) नाना