________________
२८०
प्राकृत साहित्य का इतिहास शङ्का-लेकिन वस्त्रसहित होते हुए भी द्रव्य-स्त्रियों के भावसंयम होने में तो कोई विरोध नहीं आना चाहिये ?
समाधान-ऐसी बात नहीं है। उनके भाव-संयम नहीं है, क्योंकि भाव-संयम के मानने पर, उनके भाव-संयम का अविनाभावी वस्त्रादिक का ग्रहण नहीं बन सकता।
शङ्का-तो फिर स्त्रियों के चौदह गुणस्थान होते हैं, यह कथन कैसे ठीक हो सकता है ?
समाधान-भाव-स्त्रीयुक्त मनुष्यगति में चौदह गुणस्थान मान लेने से इसमें कोई विरोध नहीं आता।'
षटखंडागम की दूसरी पुस्तक भी जीवस्थान-सत्प्ररूपण है। सत्प्ररूपणा के प्रथम भाग में गुणस्थानों और मार्गणाओं की चर्चा है। द्वितीय भाग में पूर्वोक्त विवरण के आधार से ही वीरसेन आचार्य ने विषय का विशेष प्ररूपण किया है। इस प्ररूपण में उन्होंने गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति आदि बीस प्ररूपणाओं द्वारा जीवों की परीक्षा की है । यहाँ विविध आलापों की अपेक्षा से गुणस्थानों व मार्गणाओं के अनेक भेद-प्रभेदों का विशिष्ट जीवों की अपेक्षा सामान्य, पर्याप्त व अपर्याप्त रूप का . विवेचन है । प्रस्तुत भाग में सूत्र नहीं लिखे गये हैं । सत्प्ररूपणा का जो ओघ और आदेश अर्थात् गुणस्थान और मार्गणाओं द्वारा १७७ सूत्रों में प्रतिपादन किया जा चुका है, उसी का यहाँ बीस प्ररूपणाओं द्वारा विवेचन है। इस विभाग में संस्कृत को बहुत कम स्थान मिला है, प्राकृत में ही समस्त रचना लिखी गई है। साहित्यिक वाक्यशैली जैसी प्रथम भाग में दिखाई पड़ती है, वैसी यहाँ नहीं है । शङ्का-समाधान यत्र-तत्र दिखाई दे जाते हैं।
१. इससे टीकाकार द्वारा स्त्रीमुक्ति का ही समर्थन होता है।