________________
षट्खंडागम का परिचय
२८१ षट्खंडागम की तीसरी पुस्तक जीवस्थान-द्रव्य-प्रमाणानुगम है ; जीवस्थान नामक प्रथम खंड का यह दूसरा भाग है। इस भाग में जीव द्रव्य के प्रमाण का ज्ञान कराया गया है। समस्त जीवराशि कितनी है और उसमें भिन्न-भिन्न गुणस्थानों व मार्गणास्थानों में जीव का क्या प्रमाण है, इस विषय का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा भूतबलि आचार्य ने १६२ सूत्रों में विवेचन किया है। इन सूत्रों पर लिखी हुई धवला टीका में आचार्य वीरसेन ने अनेक शङ्का-समाधान उपस्थित किये हैं। मिथ्यादृष्टियों की अनंतानंतप्रमाण राशि के सम्बन्ध में प्रश्न किया है कि यह वचन असत्यता को क्यों प्राप्त नहीं होता? उत्तर में कहा है कि ऐसी शङ्का करना ठीक नहीं, क्योंकि ये वचन असत्य बोलने के कारणों से रहित जिनेन्द्र के मुखकमल से विनिर्गत हुए हैं ( असञ्चकारणुम्मुक्कजिणवयणकमलविणिग्गयत्तादो)। दूसरे स्थान पर प्रमत्तसंयत जीवों का प्रमाण पाँच करोड़ तिरानवे लाख अठानवे हज़ार दो सौ छह बताया है। शङ्काकार को उत्तर देते हुए यहाँ भी आचार्यपरम्परागत जिनोपदेश को ही प्रमाण मान लिया गया है। कतिपय मतांतरों का खंडन कर किसी विशेष मत का मण्डन भी अनेक स्थलों पर धवलाकार ने किया है। तिर्यक्लोक के विस्तार और रज्जू के प्रमाण में दो विभिन्न मतों का विवेचन करते हुए टीकाकार ने अपने मत के समर्थन में कहा है कि यद्यपि यह मत पूर्वाचार्यसम्प्रदाय के विरुद्ध है, फिर भी तन्त्रयुक्ति के बल से हमने उसका प्ररूपण किया है (पृष्ठ ३८)। एक मुहूर्त में कितने उच्छ्वास होते हैं, इस प्रश्न को लेकर जैन आचार्यों में मतभेद है। एक मत के अनुसार एक मुहूर्त में ७२० श्वासोच्छवास होते हैं, किन्तु धवलाकार ने इनकी संख्या ३७७३ बताई है। और भी अनेक मतभेदों की चर्चा टीका में जहाँ-तहाँ की गई है। टीकाकार आचार्य वीरसेन ने द्रव्यप्रमाणानुयोग का गणितशास्त्र से संबंध बताया है और ग्रन्थ के प्रस्तुत भाग में अपने गणित