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दशाश्रुतस्कंध चूर्णी
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नामक ग्रंथ' का उल्लेख यहाँ मिलता है । आख्यायिकाओं में वाणदंतकथा, तरंगवती, मलयवती, मगघसेना और आख्यानों में धूर्ताख्यान, छलित काव्यों में सेतु, तथा वसुदेवचरिय और चेटककथा आदि का उल्लेख है ।
दशाश्रुतस्कंध चूर्णी
दशाश्रुतस्कंध की नियुक्ति की भांति इसकी चूर्णि भी लघु है । यहाँ भी अनेक श्लोक उद्धृत किये गये हैं । दशा, कल्प और व्यवहार को प्रत्याख्यान नामक पूर्व में से उद्धृत बताया है ।
वाद का असमाधिस्थान नामक प्रामृत से भद्रबाहु ने उद्धार किया | आठवें कर्मप्रवादपूर्व में आठ महानिमित्तों का विवेचन है । प्रतिष्ठान के राजा सातवाहन और आचार्य कालक की कथा यहाँ भी उल्लिखित है । सिद्धसेन का उल्लेख यहाँ मिलता है । गोशाल को भारियगोसाल कहा है, अर्थात् जो गुरु की अवहेलना करता है और उसके कथन को नहीं मानता। अंगुष्ठ और प्रदेशिनी (तर्जनी) उंगली में जितने चावल एक बार आ सकें उतने ही चावलों को भक्षण करने वाले आदि अनेक तापसों का उल्लेख किया है |
उत्तराध्ययनचूर्णी
उत्तराध्ययन चूर्णी के कर्त्ता जिनदासगणि महत्तर हैं । नागार्जुनीय पाठ का यहाँ भी अनेक स्थलों पर उल्लेख है । बहुत से शब्दों की बड़ी विचित्र व्युत्पत्तियाँ दी हुई हैं जिससे ध्वनित होता है कि नई व्युत्पत्तियाँ गढ़ी जा रही थीं । कासव ( काश्यप गोत्र ) की व्युत्पत्ति - काशं - उच्छु तस्य विकार कास्यः रसः स यस्य पानं काश्यपः-उसभसामी तस्स जोगा ने जाता ते कासवा माणसामी कासवो ।
१. मुनि पुण्यविजयजी के अनुसार ज्योतिष्करंड का ही दूसरा का है।
२. सन् १९३३ में रतलाम से प्रकाशित ।