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प्राकृत साहित्य का इतिहास
आदि को धर्म; गोत, दिशाप्रोक्षित, पंचाग्नि तप, पचगव्यान आदि को कुत; तथा भूमिदान, गोदान, अश्वदान, हस्तिदान, सुवर्णदान आदि को कुदान कहा गया है । चर्मकार, नाई ( हाति ) ', और रजक आदि को शिल्पजुंगित ( शल्प में हीन ) की कोटि में गिनाया है । तत्पश्चात् विविध प्रकार के वस्त्रों, मालाओं, आभूषणों, वाद्यों, शालाओं, आगारों, उत्सवों, साधु-संन्यासियों, सिद्धपुत्र, मुंडी आदि की परिभाषायें यहाँ दी हैं । (सिद्धपुत्र भार्या सहित भी रहते हैं और भार्यारहित भी ।
शुक्ल व पहनते हैं । उस्तरे से सिर मुंडाये रहते हैं, शिखा रखते हैं, कभी नहीं भी रखते, दण्ड और पात्र वे धारण नहीं करते । ) निर्मंथ, शाक्य, तापस, गैरिक और आजीवक इन पाँचों की श्रमणों में गणना की गई है । श्वानों के सम्बन्ध में बताया है कि कैलाश पर्वत (मेरु ) पर रहनेवाले देव यक्षरूप में ( श्वान रूप में) इस मर्त्यलोक में रहते हैं । शक, यवन, मालव, तथा आंध्र-मि का यहाँ उल्लेख है ।
चूर्णीकार ने भाष्य की अनेक गाथाओं को भद्रबाहुकृत और अनेक को सिद्धसेनकृत बताया है । छेदसूत्रों की भांति दृष्टिवाद को उत्तमश्रुत बताते हुए कहा है कि द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग, धर्मानुयोग और गणितानुसयोग का वर्णन होने से यह सूत्र सर्वोत्तम है । भाष्यकार द्वारा उल्लिखित कप्प और पकप पर चूर्णी लिखते हुए चूर्णीकार कप्प में दसा, कप्प और व्यवहार ; पकप्प में मिसीह और तु शब्द से महाकप्प और महानसी को लेते हैं । विधिसूत्र में आवश्यक के अन्तर्गत सामायिक निर्युक्ति, तथा जोणिपाहुड का उल्लेख है । परंपरागत अनुश्रुति के अनुसार मंत्रविद्या के इस ग्रन्थ की सहायता से सिद्धसेन ने अव बनाकर दिखाये थे । पादलिप्त के कालण्णाण गणना तीन तीर्थों में की गई है । आवश्यकचूर्णि (२, पृ० १९७) में भी इन्हें सुतीर्थों में ही गिनाया गया है ।
१. मराठी में न्हावी ।